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"सम्मेद शिखर-विवाद क्यों और कैसा?"
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सं. १६७० में आगरा निवासी ओसवाल श्रेष्ठी श्री कुंवरपाल व सोनपाल लोढा संघ सहित यहां यात्रार्थ आये जब जिनालयों का उद्धार करवाने का उल्लेख श्री जयकीर्तिजी ने “सम्मेतशिखर रास'' में किया है। आज तक अनेकों आचार्य मुनिगण व श्रावक, श्राविकाएँ एवं संघ यहां यात्रार्थ पधारे हैं । मुनिवरों ने सम्मेतशिखर तीर्थयात्रा, जैन तीर्थमाला, पूर्व देश तीर्थमाला आदि अनेकों साहित्यिक कृतियों का सृजन किया है जो आज भी गत सदियों की याद दिलाते हैं।
वि. सं. १६४९ में बादशाह अकबर ने जगद्गुरु आचार्य श्री हीरविजयसूरिजी को श्री सम्मेतशिखर क्षेत्र भेंट देकर विज्ञप्ति जाहिर की थी । कहा जाता है कि उक्त फरमान पत्र की मूल प्रति अहमदाबाद में श्वेताम्बर जैन श्री संघ की प्रतिनिधि संस्था सेठ आनन्दजी कल्याणजी की पेढ़ी में सुरक्षित है।
वि.सं. १७४७ से १७६३ के दरमियान श्री सौभाग्यविजयजी, पं. जयविजयसागरजी, हंससोम-विजयगणिवर्य, विजयसागरजी आदि मुनिवरों ने तीर्थमालाएँ रची हैं जिनमें भी इस तीर्थ का विस्तार पूर्वक वर्णन है।
सं. १७७० तक पहाड़ पर जाने के तीन रास्ते थे। पश्चिम से आने वाले यात्री पटना, नवाना व खडगदिहा होकर एवं दक्षिण-पूर्व की तरफ से आने वाले मानपुर, जैपुर, नावागढ़ पालगंज होकर व तीसरा मधुबन होकर आते थे। पं. जयविजयजी ने सत्रहवीं सदी में व पं. विजयसागरजी ने अठारवीं सदी में अपने यात्रा विवरण में कहा है कि यहां के लोग लंगोटी लगाते हैं। सिर पर कोई वस्त्र नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com