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चित्सुखाचार्य के अनुसार स्वप्रकाशता की अवधारणा
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है । अपि च यदि स्वप्रकाश ज्ञान का विषय ही नहीं है तो उसे जानने की जो जिज्ञासा हमारे मन में है उसके विषय में क्या कहा जायेगा। स्वप्रकाश को ज्ञान का अविषय मानने से पूर। वेदान्तशास्त्र ही निष्प्रयोजन हो जायगा ।
अतिव्याप्ति
" और यह लक्षण प्रामाता लक्षण का स्वरूप होगा
सप्तम लक्षण भी कदापि शुद्ध नहीं है । अविषयत्व का खंडन तो ऊपर हो ही चुका है और अब यदि विषयत्व शब्द को कर्मत्व का वाचक माना जाये तो लक्षण का स्वरूप होगा "ज्ञानाकर्मत्वे सति अपर क्षत्वम" और यह लक्षण प्राभाकर मीमांसकों की आत्मा में प्रविष्ट हो जाने से अतिव्याप्ति के दोष से ग्रस्त हो जाता । ऐसा इसलिए कि प्राभाकर मीमांसकों के मतानुसार आत्मा में ज्ञान कर्मस्व नहीं होता फिर भी शान का आश्रय होने के कारण उसमें अपरेशिता मानी जाती है । लेकिन यहाँ यह भी विचारणीय है कि प्राभाकार मीमांसकों की आत्मा चेतन नहीं है वरन् जड़ है और ज्ञानस्वरूप न होने से अस्वप्रकाश है । अत: इस अस्वप्रकाश तत्व में लक्षण की चरितार्थता होने से लक्षण अग्राहा है ।
अष्टम लक्षण में भी मोक्षकालीन आत्मा में अव्याप्ति दोष है क्योंकि मोक्षावस्था में किसी प्रकार का व्यवहार नहीं होता अत: व्यवहार की अविषयता मानी जाती है । ज्ञान की अविषयता की असंभवता भी ऊपर बतायी जा चुकी है। अतः यह लक्षण भी ग्रहण करने योग्य नहीं है । अपि च प्राभाकर मीमांसक के यहाँ शुक्तिरजत-संसर्ग में व्यवहार की विषयता16 मानी जाता है क्योंकि " इदं रजतम्" इस प्रकार का व्यवहार माना जाता है, किन्तु मिथ्या ज्ञान न मानने के कारण शुक्तिरजत-संसर्ग में ज्ञान की अविषयता मानी जाती है । अत: शुक्ति रजत-संसर्ग में स्वप्रकाश के उपर्युक्त लक्षाण के चले जाने से लक्षण अतिव्याप्ति दोषयुक्त हो जाता है अतः अग्राह्य है।
नवम लक्षण घट, प्रदीपादि में प्रवेश होने से अतिव्याप्ति दोष से दूषित पाया जाता है। यह इसलिए कि घट या प्रदीप को भी अपने व्यवहार के लिए किसी सजातीय की अपेक्षा नहीं होती। यदि लक्षण प्रस्तुतकर्ता के पक्ष में यह कहा जा सकता है कि अन्ततोगत्वा सबको अदृष्ट की अपेक्षा होती है अत: स्वप्रकाश को भी स्वव्यवहार के लिए अदृष्ट की अपेक्षा होगी और सत्ता साम्यात् ये सजातीय भी होंगे । इससे जो मूल लक्षण है वही बाधित हो जायेगा क्योंकि स्वप्रकाश को स्वव्यवहार में सत्ता साम्यात् सजातीय अदृष्ट की अपेक्षा सिद्ध होगी अनपेक्षा नहीं।
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दशम लक्षण भी असंगत है । ऐसा इसलिए कि जो वेद्य ही नहीं है उसके विषय में विचार क्या करना, जैसा लक्षाण के खंडन के समय कहा जा चुका है। और भी जो अवेद्य है उसमें आरोक्षा व्यवहार की विषयता असंगत है । अवेद्य अपराश व्यवहार की विषयता मानना वैसा ही हुआ जैसा कि यदि यह कहा जाय कि मेरी माता बन्ध्या है क्योंकि मुझ सन्तान की जननी के। सन्तानहीना कहना बिल्कुल विपरीत कथन है। इसके अतिरिक्त मेक्षिकालीन दशा मे किसी भी प्रकार का व्यवहार नहीं माना जाता अतः वहाँ लक्षण की अव्याप्ति होने से भी लक्षाण त्याज्य है।