Book Title: Sambodhi 1984 Vol 13 and 14
Author(s): Dalsukh Malvania, Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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चिरसुखाचार्य के अनुसार स्वप्रकाशता की अवधारणा
10. सप्रतिपक्षस्थापनाहानो वितंडा ।
-वही अ. 1 भा. 2 सू. 3.
11. खंडन पृ. 81-113.
सूक्ष्म का शान अनेक स्थलों के क्रमिक ज्ञान से होना, अर्थात् स्थूलों को न जान लेने से सूक्ष्म को ठक ठीक समझना संभव नहीं है । इसे प्रकृत में य समझा जा सकता है कि स्वप्रकाश का जो अन्तिम लक्षण है वही निर्दुष्ट (सूक्ष्मतम) होने के कारण उसे समझने के लिए सबसे अधिक दोष युक्त य! स्थल उससे कम, उससे कम इस
क्रम का अनुशरण करने से वह खालिघ्राति समझा जा सकता है । 13. अलक्ष्य में लक्षणगमन 14. लक्ष्य के एक भाग में लक्षण का अपम्बन्ध 15. लक्ष्यस्वरूपमात्रत्वात्तस्य जडज्ञानबादिभिरपि तावन्मानाङ्गीकाराच ।
-नयनप्रसादिनी पृ. ८ टीका
षड्दर्शन, प्रकाशन प्रतिष्ठानम्-वाराणसी १९७५ 16. व्यवहार का यहाँ अर्थ है शब्दप्रयोग। 17. अभावस्तु द्विधा......भाषापरिच्छेद 18. अन्योन्यामावस्तु तादात्म्य प्रतियोगिकोऽभावः (अर्थात् जो अभाव अपने प्रतियोगी के
तादात्म्य का विरोधी होता है उसे अन्योन्याभाव कहते हैं जैसे घट, पट नहीं है या
पट, घट नहीं है । वही) 19. उत्पत्तः प्राक् कारणे कार्यस्याभाब (अर्थात् कार्य की उत्पत्ति के पूर्व कारण में कार्य का अभाव होना जैसे तन्तु में पट का अभाव)
-तर्कभाषा-मोतीलाल बनारसी दास,-बाराणसी १९८६ 20. उत्पन्नस्य कारणेऽभावः प्रध्वंसाभावः (अर्थात किसी उत्पन्न कार्यद्रव्यों के नष्ट हो जाने
पर जो उसका अभाव हो जाता है वह ध्वंसीमाव कहलाता है जैसे जब घड़ा बनकर
टूट जाता है तब टूटे हुए टुकहो. में घडे का अभाव) 21. कालिकोऽभावोऽत्यन्तामाकः (अर्थात् दो बस्तुओं में त्रैमालिक -भून, वर्तमान और भविष्य
- संबन्ध के अभाव को अत्यन्ताभाव कहते है, जैसे वायु में रूप का अभाव)-वहीं 22. भक्षमम्भवतः केय साधकल्वप्रकल्ाने । किन पश्यति संसार ताज्ञानकल्पितम् ।
-बहदारण्यकोपनिषदभाष्यकार्तिक 23. आन्नदो विषयानुभवो निमत्यत्व येति सन्ति धर्माः । 24. फलव्याप्यतालक्षणवेद्यत्वस्य तथाभावार्थ त्वम् | चित्सुखी पृ. १७ षड्दर्शनप्रवचन वाराणसी
१९७५. 25. चोदना लक्षणोऽर्थो धर्मः (वेदवाक्य ही लक्षण अर्थात प्रमाण है जिसका)
जैमिनीय सूत्र । 1.1.2.