Book Title: Sambodhi 1984 Vol 13 and 14
Author(s): Dalsukh Malvania, Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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ફૂટ
गौरी मुकजी
26. जो वस्तु इन्द्रियगोचर नहीं है उसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता जैसे रूप का प्रत्यक्ष कर्णेन्द्रिय नहीं कर सकता ।
27. यथा अग्निश्व हेतु धूमत्व का व्यभिचार अयःपिण्ड में है । अतः यत्र यत्र वह्निः तत्र तत्र धूमः यह व्याप्ति नहीं बन सकती ।
28. किसी प्रसिद्ध साध्य के लिए सदैव अन्वयव्यतिरेकी अनुमान दिया जाता है केवलव्यतिरेकी नहीं ।
29. साध्य, पञ्च का विशेषण होता है जैसे पत्र पक्ष का अग्नि साध्य होने से अग्नियुक्त पर्वत इस प्रकार का प्रयोग होता है जिससे अग्नि-साध्य स्पष्ट रूप से पर्वत पक्ष का विशेषण जान पड़ता है | अतः उसकी (माध्य) प्रसिद्धि न होने से विशेषण की अप्रसिद्धि होती है और ऐसा होने से अप्रसिद्धिविशेषता का दोष कहलाता है ।
30. हृष्य वेदान्तपरिभाषा - अनुमान परिच्छेद ।
31. महाविद्या एक प्रकार के अनुमान शैली का नाम है । यह शैली - "नव्यन्याय" की प्रमुख देन है । जिस प्रकार काली तारा आदि महाविद्याओं की उपासना से परलोक प्राप्य उसी प्रकार महाविद्या अनुमान में भी साध्यसिद्धि हो पाती है यत् किंचित्
कल्याणपूर्वक भौतिक जगत में कल्याण होता है, किसी अन्य की सिद्धि होने के बाद ही पक्ष में साध्यपदेव पक्षे साध्य साध्यति महाविद्यानुमानम् ।
32. यस्य हेतोः शब्दयो नावगम्यते स आश्रयासिद्धः तर्कभाषा |
यह वह हेतु हैं जिसका असिद्ध होता है, यह असिद्ध हेत्वाभास के तीन प्रकारों में से एक है । बाकी दो क्रमशः स्वरूपासिद्ध और व्याप्यत्वासिद्ध है । आश्रयासिद्ध का उदाहरण है-नारविन्दं सुरभि अरविन्दत्वात् अर्थात् गगन का कमल सुगन्धित है क्योंकि कमल है । लेकिन गगन का कमल असिद्ध होने से आश्रय या पक्ष ही असिद्ध होता. है अतः वह हेतु जो ( भसिद्ध) आश्रय में साध्य के साबनार्थ प्रयुक्त हुआ होता है आश्रयासिव हो जाता है ।
33. स्वरूपासिद्धस्तु स उच्यते यो हेतुराश्रये नावगम्यते
तर्क भाषा
ही
जिस हेतु का पक्ष में अभाव हो उसे स्वरूपासिद्ध कहते हैं। जैसे शब्द अनित्य है क्योंकि उसका चाक्षुष होता है । इस अनुमान में चाक्षुषत्व हेतु शब्द के विषय में स्वरूपतः असिद्ध है - अतः हेतु स्वरूपासिद्ध हो जाता है ।
34. व्याप्यत्वासिद्धस्तु स एव यत्र हेतोर्व्याप्तिर्नावगम्यते - तर्क भाषा.
. जिस हेतु में उपाधि होने से व्याप्ति सिद्ध न हो उसे व्याप्यत्वासिद्ध कहते हैं जैसे पर्वत में धुआँ है क्योंकि गीली लकड़ी (उपाधि) से जलाई गयी आग है । इस अनुमान में after हेतु गीली लकड़ी उपाधि से युक्त होने के कारण व्याप्यखा सिद्ध है ।
35 तक संग्रह - उपाधि लक्षण |
36. व्यभिचारस्यानुमानमुपाधेस्तु प्रयोजनम् कारिका 40 न्यायसिद्धान्तमुक्तावली ।