Book Title: Sambodhi 1984 Vol 13 and 14
Author(s): Dalsukh Malvania, Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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चित्सुखाचार्य के अनुसार स्वप्रकाशता की अवधारणा
(एतद् घट) से अतिरिक्त अन्य घटों में सिद्ध साधन हो जायेगा । क्योंकि सभी घटों में घटान्यत्वविशिष्ट वेद्यत्व के अनधिकरण से भिन्नता सिद्ध ही है । इस पूर्व सिद्ध वस्तु की पक्ष में सिद्धि करना निष्प्रयोजन होने से एवं विवक्षित "अवेयस्व" की सिद्धि न होने से सिद्ध साधनता है । पक्ष में सम्पूर्ण साध्य की सिद्धि करते समय यह प्रश्न होगा कि विवक्षित " अन्यत्व एतद्घटान्यत्वेन" माना जाय या "वेद्यस्वानाधिकरणत्वेन" माना जाय अर्थात् विशेषण के अनुसार अन्यत्र माना जाय या विशेष्य के अनुसार । विशेषण का अन्यत्व तो सम्भव ही नहीं है क्योंकि " अयंघट" में "एतद्घान्यत्व" कथमपि नहीं होगा इसलिए "वेद्यत्वानधिकरणान्यत्वेन" ही साध्य की सिद्धि पक्ष में करना होगा । क्योंकि एतद्वघटायरव पक्ष में भी प्रयुक्त "अयं" विशेषण को सार्थकता को समझाते हुए आचार्य कहते हैं कि घट मात्र को पक्ष कहने से अन्य किसी घट को लेकर अर्थान्तरता हो जायेगा क्योंकि दूसरा घट की "एतद्घटान्यत्वविशिष्ट वेद्यस्वानधिकरण" होगा और उससे " इस घट ' की अन्यता भी होगी। अतः महाविद्या अनुमान दोषरहित हैं । फलतः उससे अनुमित अवेद्यस्व प्रसिद्ध हो जाता है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि 'अवेद्यत्व' रूपी साध्याप्रसिद्धि के वारण के लिए विभिन्न प्रयास ऊपर प्रदर्शित किए गये हैं । पुनः अनुभूतिः स्वयं प्रकाशा ---इस अनुमान में यह कहा जा सकता है कि इस तरह किसी न किसी रूप में सर्वत्र साध्य की प्रसिद्धि मान लेने पर तो अप्रसिद्ध विशेषणत्व दोष ही नहीं होगा । किन्तु यह अशंका समुचित नहीं है क्योकि भूमिः शशविषाणोल्लिखता, भूमित्वात्-इस केवल व्यतिरेकी अनुमान में साध्याप्रसिद्धि का दोष कहा जा सकता है । ऐसा इसलिए कि यहाँ शशविषाण की प्रसिद्धि किसी भी रूप से नहीं की जा सकती है । साध्याप्रसिद्धि के वारण के अतिरिक्त पक्षाप्रसिद्धि और हेत्वाप्रसिध्दि का भी वारण किया जाता है । अनुभूति दोनों मतों में प्रसिध्द है अत: पक्षाप्रसिद्धि का प्रश्न ही नहीं है । हेत्वप्रसिद्धि के निराकरण के लिए (अनुभूतित्व) हेतु के जितने भी दोष हो सकते हैं अर्थात् जितने भी हे स्वाभास हो सकते हैं सभी की उपस्थापना करते हैं एवं उन सबका निराकरण करके अनुभूतित्व रूपी हेतु को पूर्ण रूपेण शुद्ध प्रमाणित करते हैं। हेत्वाभास-असिद्ध
(I) आश्रयासिद्ध ३ --कि अनुभूति रूपी पक्ष की प्रसिध्दि है अतः अनुभूतित्व रूपी हेतु को आश्रयासिद्ध नहीं कहा जा सकता।
(2) स्वरूपासिद्धि 33 अनुभूतिल के स्वरूप के सम्बन्ध में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि वह स्वरूपतः जाति है अथवा उपाधि । जाति कही नहीं जा सकती क्योंकि अनुभूति एक मानी जाती है, अनेक नहीं । अनेक की जाति होती है जैसे घर की घटत्व या पट की पटव किन्तु आकाश एक होने से आकाशत्व जाति नहीं मानी जाती । इसे उपाधि भी नहीं मानी जा सकती क्योंकि उपाधि किसी के आश्रित होने से उपाधि के अतिरिक्त किसी भाश्रय को मानना होगा । अतः अनुभूतित्व हेतु जाति या उपाधि न होने से उसका स्वरूप ही असिध्द हो जाता है । अतः स्वरूप का निर्णय न होने से अनुभूति रूपी पक्ष में उसकी स्थिति कैसे होगी ? अर्थात् अनुभूतित्व (हेतु) की अनुभूति (पक्ष) में स्वरूप के अभाव