Book Title: Sambodhi 1984 Vol 13 and 14
Author(s): Dalsukh Malvania, Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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गौरी मुकर्जी
इस अनुपयसाप ज्ञान से घट की वेद्य जानी जाती है, अनुभूति की नहीं । यदि अनुभूति या " मैं घटज्ञानवान हूँ।' इस ज्ञान में प्रत्यक्षता मानो भो जाय तो भो-उसकी वेद्यता का प्रत्यक्ष तो नहीं होता । अतः उसकी अवेयता बाधित नहीं होती। क्योंकि यदि अनुव्यवसाय ही अनुपवमायाश्रित अनुस्यनसाय के वेधत्व का प्रत्यक्ष कराता है तब स्थिति दूसरी होगी। घेद्यत्य सापेक्ष धर्म होता है तथा अनुव्यवसाय उसको विशेषण होने से उस वेद्यता का ग्रहण सर्वदा उसके विशेष के साथ ही करना होगा । अतः उक्त : अनुम्यवसाय के वेद्यत्व का अर्थ होगा अनुव्यवसाय विशिष्ट वेद्यत्व, उस प्रकार अनुव्य. बसाय का वेद्यत्व यदि अनुव्यवसाय विशिष्ट वेद्यस्व में रहेगा तब विशेषण रूपी अनुव्यवसाय में भी-वेद्यत्व मानना पड़ेगा तथा अनुव्यवसाय अपने ही वेद्यस्व को स्वयं ग्रहण 4 11 करेगा। फलस्वरूप योगाचार नौच्चों के सिध्यान्त से सहमत होना होगा । अतः अनुभूति की वेद्यता का प्रत्यक्ष न मानना ही बुध्धिमानी है । ३तः हेतु बाधित नहीं है।
(9) सत्प्रतिपक्षस्व अनुभूति स्वयं प्रकाशा , अनुभूतिस्वात् यन्नव" इस अनुमान में प्रयुक्त हेतु अनुभूतित्व से स्वयं प्रकाश या अवेद्यरूपी साध्य की सिधि होती है। यदि किसी दूसरे हेतु से इसी स्वयं प्रकाशरूपी या अवेद्य साध्य की असिद्धि दिखायी जा सके तभी अनुभूतिख हेतु को सम्प्रतिरक्ष कहना उचित होगा। इसके लिए अनुभूति वेधा वस्तत्वात घटवत् यह अनुमान दिया जा सकता है किन्तु इस अनुमान से अनुभूति में वेद्यस्व की सिद्धि के लिए “यद्वस्तु तद्वेद्य " यह व्याप्ति माननी होगी। ऐसे अवसर में यह प्रश्न उठेगा कि ध्याप्ति ग्रहण करनेवाली अनुभूति व्याप्ति ग्रहण कर्ता में स्फुरित (प्रकाशित) होती है या नहीं। यदि प्रथम विकल्प को स्वीकार किया जाय तो योगाचार बौदाभिमत स्वप्रकाशव की आपत्ति होगी जिसे नैयायिक नहीं स्वीकार कर सकते । और यदि व्याप्ति के ग्रहण में उसकी हेतुता न मानी जाय तब वेदान्त सम्मत स्वयं प्रकाशता को ही ग्रहण करना होगा। यदि दूसरा विकल्प माना जाय अर्थात् यह माना जाय कि व्याप्ति ग्रहण करनेवाली अनुभूति व्याप्ति ग्रहण काल में स्फुरित नहीं होती है तब तो व्याप्ति ही समाप्त हो जायेगी क्योंकि उक्त व्याप्ति के अनुसार तो सभी में (वेद्यता स्फुरणता) प्रकाशता (होनी चाहिए)। अतः व्या.प्त ग्रहण करनेवाली अनुभूति में स्फुरणता न मानने पर और वहाँ वस्तुत्व होने पर भी स्फुरणव (वेयर।) का व्यभिचार होने से व्याप्ति नहीं बन पाएगी। अत: इसका निर्गलताथ यही होगा कि अनभतित्व हेतु सत्प्रतिपक्ष नहीं है । इसके अतिरिक्त वस्तुख हेतु केवलान्वयी है अतः उसका कोई विपक्ष (अवेद्यपदार्थ) होगा | वहाँ से वस्तुत्व हेतु की व्यावृत्ति सिद्ध करने के लिए विपक्षबाधक तक' का प्रयोजन हो । यदि " वेद्यस्य को न मानने पर वस्तुत्व उत्पन्न नहीं होगा "इस प्रकार का तर्क प्रस्तुत किया जाय तो यह सिद्धांत के द्वारा स्वीकृत नहीं होगा ।। इसका कारण यह है कि स्वयंप्रकाशा भनुभूति में वेद्यस्व को स्वीकार किया जाता है जबकि उसमें वस्तुत्व माना जाता है । अतः उपयुक्त त ' के आधार पर अनुभूतित्व हेतु को किसी भी मूल्य में सत्प्रतिपक्ष नहीं ठहराया जा सकता है।
इस प्रकार स्वप्रकाश के अनुमान में सभी प्रकार के हेतुदोषोदभावन करके उन दोषों का निराकरण करके आवार्य अनुभूतिष हेतु को भी परिष्कृत कर देते हैं या उसे निर्दष्ट