________________
चिरसुखाचार्य के अनुसार स्वप्रकाशता की अवधारणा
अब सिद्धान्ती केवल व्यतिरेकी अनुमान की रक्षा करते हुए साध्य को अप्रसिद्धि के दोष का निराकरण करते हैं या साध्य की प्रसिद्धि केवल व्यतिरेकी स्थल में करते हैं । साध्य की प्रसिद्धि के लिए उदयनाचार्य की रीति से ही अगला अनुमान प्रस्तुत किया जाता है-वेद्यत्व किचिन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगि, धर्मत्वात, शौक्ल्यवत् वेद्यत्व ( पक्ष ) किसी धर्मी में रहने वाले अत्यन्ताभाव का प्रतियोगी है (साध्य) क्योंकि धर्म है (हेतु) जैसे शुक्लाव (उदाहरण) अर्थात् साध्य के अन्दर विशेषण तथा प्रविष्ट वेद्यत्व किसी अधिकरण में रहने वाले अत्यन्ताभाव का प्रतियोगी है क्योंकि नियमतः जो धर्म है वह किसी न किसी धर्मी में रहने वाले अभाव का प्रतियोगी होता है। जैसे शुक्लत्व का अभाव नीलघटादि में है । इसे यू भी सष्ट किया जा सकता है कि वेद्यत्व (धर्म) जो वेद्य पदार्थ या धर्मी में होगा और उस दूसरे धर्मों के धर्म का वेद्यत्व प्रतियोगी भी होगा । (जैसे शुकलत्व, शुक्ल धर्मी का धर्म होने के कारण नीलघटरूपी धर्मी में उसका अत्यन्ताभाव होने से शुक्लब नीलघट में रहने वाले अत्यन्ताभाव का प्रतियोगी होता है) । अतः जिस धर्मी में रहने वाले अत्यन्ताभाव का प्रतियोगी वेद्यत्व है वहीं अवेद्यत्व की प्रसिद्धि मान ली जायेगी । यधपि अवेद्यत्ववान् धर्मी विशेष ज्ञात नहीं होने से या अवेद्यत्व की सत्ता अज्ञात धर्मों में ही सही लेकिन प्रसिद्ध हो जाता है ।
यहाँ पर एक स्वाभाविक जिज्ञासा उत्पन्न हो सकती है कि स्वप्रकाश का लक्षण मात्र अवेद्यत्व नहीं है अपितु अद्यत्वे सति अपरोक्षयवहार योग्यत्वम् । तब क्या कारण है कि साध्य स्वप्रकाश की सिद्धि करने के उद्देश्य से मात्र अद्याव की सिद्धि की गयी। इसका सीधासाधा उत्तर यही है कि स्वप्रकाश के लक्षण के अपरोक्ष व्यवहार योग्यत्व पद में विवाद नहीं है क्योंकि वेदान्त एवं न्याय दोनों संप्रदाय में इसे माना हो गया है। विवाद केवल अवेद्यत्व पद को लेकर है । अतः उसकी सिद्धि स्वप्रकाश की सिद्धि मानी जाती है ।
- इसी साध्य की सिद्धि एक अन्य रीति से भी हो सकती है जिसे न्याय-लीलावतीकार की गति कहते हैं। यह नियम स्वीकार किया जाता है कि यद्-विपर्यये असमीहितप्रसक्ति स्तत् क्वचिन्मानयोग्यम् अर्थात् जिसका अभाव मानने पर अनवस्थादि अनिष्ट दोषों को प्राप्ति हो बह पदार्थ अवश्य ही प्रमाण का विषय होता है । अनुभूति के विषय में यदि यह प्रश्न उठे कि वह अनुभाव्य (वेय) है कि नहीं और यदि प्रश्न के प्रथम विकला (अनुभूति अनुभाव्य है या वेध है) का समर्थन किया जाय तो अनवस्थादि दोष की प्राप्ति होती है क्योंकि अनुभूति को वेद्य मानने का अर्थ होता है कि वह दूसरी अनुभूति का विषय है और फिर दूसरी अनुभूति तीसरी अनुभूति का विषय होगी और तीसरी, चौथी का और इस प्रकार कहीं भी अवस्थिति न होने से अनवस्था दोष की प्राप्ति होगी अर्थात् अवेद्यता का अभाव मानने पर अनवस्था हो रही है । अतः यह कहने में अल्पमात्र भी संकोच नहीं करना चाहिए कि अवेद्यत्व किसी प्रमाण का विषय है । अवेद्यस्व के प्रमाण का विषय होने का अर्थ होता है वह प्रसिद्ध है अर्थात् वह काल्पनिक वस्तु नहीं है। कहीं न कहीं उसकी सत्ता है। अतः उपयुक्त नियम से पुनः साध्य की प्रसिद्धि होती है ।
इसके उपरान्त आचार्य साध्याप्रसिद्धि के वारण के लिए महाविद्या अनुमान 31 की