Book Title: Sambodhi 1984 Vol 13 and 14
Author(s): Dalsukh Malvania, Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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गौरी मुकर्जी
दूसरे विपक्ष को भी युक्तियुक्त न होने से करने में असुविधा है क्योंकि अपरोक्ष व्यवहारयेोग्यता से देवता का अनुमान करने में यत्र यत्र अपरोक्ष व्यवहार योग्यव तमतमयेद्याय यह याप्ति माननी होगी। उस स्थिति में प्रश्न उठेगा कि म्याि ग्रहण करने के समय (1) प्रकाशित है अथवा (2) नहीं । यदि प्रथम प्रश्न के उत्तर में हाँ कहा पाये और साथ ही यह भी माना जाये कि उसीसे उसका ज्ञान होता है तो विज्ञानवा बौद्धों के स्वप्रकाशस्य का समर्थन करना होगा जो कि ज्ञान को ज्ञान का कर्म मानते हैं। यदि उस ज्ञान के ग्रहण में उसकी हेतुता नहीं मानी जाये तो वेदान्त के स्वप्रकाशता के मत को मानना होगा ।
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ऐसा
यदि द्वितीय प्रश्न का समर्थन किया प्राय अर्थात् यह माना जाय कि व्याप्तिको करने के समय करनेवालान स्वयं पाशित रहता है तो ध्याति की समाप्ति हो कि तभी होगी जब अपरोक्ष व्यवहार वता के सभी भाषा में पेता दिलायी जा सके। किन्तु व्याप्ति करने या अप्रकाशित होने के कम से कम उस ज्ञान में वेद्यश्व नहीं रह सकता जबकि उसमें अपरोक्ष व्यवहार की योग्यता होती है अतः अपरोक्ष उपहार योग्याय व्यवहार हेतु थानाभिचारी हो उसमें वेद्यत्व की व्याप्ति की समाप्ति हो जाती है 128 अतः स्वप्रकाश का भवेद्यत्वे रुति अपरोक्ष पारम्पारपरता भावनाधिकरणाच" यही निष्ट समीचीन क्षण बढ़ने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करना चाहिए।
"
स्वात्व में प्रमाण तथा युक्ति के आधार पर उसकी निदुष्टता का सिद्धि
स्वप्रकाश का लक्षण करने के उपरान्त भी यह विचारणीय रह जाता है कि स्वप्रकाश में प्रमाण क्या है । प्रमाण के बिना केवल लक्षण मात्र से वस्तु भी सिद्धि नहीं हो सकती । अतः अनुभूति (ज्ञान) हेतुकयतिरेकी अनुमान प्रमाण से भावार्य स्वपन की प्रमिति ते है। अनुमान का स्वरूप है अनुभूति स्वयं प्रकाशानुभूवियात् तन्नैवं यथा घटः (अनुभूति पक्ष है, स्वयं प्रकाशश्व साध्य है अनुभूतिस्वात् हेतु तन्नेव तन्नैवं व्याप्ति और यथा घटः यह उदाहरण है) स्वप्रकाश को प्रमाणित करने के पूर्व उसका प्रमाणित करने के हिरो प्रमाण दिया है उसे सबसे पहले भी यों से सिद्ध किया
अन्यथा उसमें प्रामाण्य नहीं माना जा सकता ।
सर्वप्रथम साध्य के स्वरूप पर प्रश्न उठता है कि नहीं अर्थात् साध्य की सत्ता कहीं ज्ञात है अथवा नहीं? यदि ऐसी स्थिति में केवल व्यतिरेकी अनुमान निष्प्रयोजन विकल्प पर विचार किया जाये विशेषणता को दोष आता है ।
साध्य की कहीं प्रसिद्धि है अथवा साध्य कहीं प्रसिद्ध ही है तो हो जाता है 28 । यदि दूसरे अर्थात् साध्य की प्रसिद्ध न मानी जाय तो अप्रसिद्ध अतः इस दोष को दूर करने के लिए साध्य की प्रसिद्धि हो जाती है। यह कहा था सकता है कि वा परिमाप में मन श्री समयस्मिता ही स्वीकार की गयी है मटः पतिरेकी का प्रयोग उचित नहीं है तथापि याय भी यह प्रयोग है ऐसा कहा
है।