Book Title: Sambodhi 1984 Vol 13 and 14
Author(s): Dalsukh Malvania, Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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गोरी मुकर्जी
आचार्य उसका परिस्कार कर देते हैं । अतः योग्यता स्वप्रकाश का स्वरूप है या नहीं इसकी चर्चा है।
योग्यता शब्द के विलेषण के उपरान्त लक्षण में प्रयुक्त अवेधता रूपी विशेषण की सार्थकता को बताने के लिए आचार्य उपत होते हैं। अपरोक्ष व्यवहार को योग्यता तो बद पर आदि संसार की सभी वस्तुओं में है । अतः अपरोक्ष व्यवहार की योग्यता मात्र लक्षण करने पर घट, पटादि में लक्षण की अतिव्याप्ति होगी । अतः अवेयता विशेषण अपरिहार्य है । विशेषाद की सार्थकता पर भी बस देते हुए आचार्य कहते हैं कि जैसे मात्र भवरोक्ष व्यवहार की योग्यता स्वप्रकाश का लक्षण नहीं बन सकता उसी प्रकार मात्र अवेद्यता भी स्वप्रकाश का लक्षण नहीं हो सकता । इसका कारण यह है कि भूतकालीन घट भविष्यकालीन घट एवं निष्यअनुमेय धर्मादि सभी अवेय होने से लक्षण अतिव्याप्त हो जायेगा । इस पर पूर्व पक्ष यह शंका करते हैं कि धर्मादि जो शब्दप्रमाण से ज्ञात है उसे अवेद्य कैसे कहा जा सकता है । उपयुक्त शंका अवेय शब्द को ज्ञान का अविषय समझकर की जाती है । सिद्धान्ती इस शंका का समाधान अवेद्यता अर्थ फलव्याप्ति राहित्य करके करते हैं । वेदान्त मत में ज्ञान का फल इससे व्यय होता है आदि विषयों में व्याप्यता है अतः वे वेय हैं किन्तु स्वप्रकाश तत्व स्वयं ही चैतन्य रूप है अतः वह घटादि की तरह फल व्याप्य हो ही नहीं सकता इस अर्थ में उसे अवेद्य माना जाता है ।
पूर्वपक्ष: वांका करते है कि यदि धर्मादि भय है जैसा पेदान्ती मानते हैं ब योगियों के द्वारा उसके मानस प्रत्यक्ष को व्याख्या क्या दी जा सकती है । सिद्धान्ती कहते हैं कि धर्मादि का ज्ञान शब्द प्रमाण 25 से ही होता है, प्रत्यक्ष प्रमाण से नहीं । इस पर यदि पूर्वपक्ष योगियों को जो सर्वदर्शी है धर्म का प्रत्यक्ष न कर पाने के कारण उनकी कोकरे तो भी उचित नहीं है। क्योंकि सा होने का यह अर्थ नहीं
है कि जो कान से सुनकर जानने का वस्तु है उसे आँख से देखकर जाना जाता हो 26 | सर्वदर्शिता का अर्थ है सर्वयोग्यपदार्थदर्शिव अर्थात् जिस देखे जाने या सुने जाने वाले पदार्थ को हम साधारण व्यक्ति सूक्ष्म एवं दूर में स्थित होने के कारण आँख से देखकर या कान से सुनकर नहीं जान सकते उसे योगिगग जानने की क्षमता रखते हैं। उदाहरण स्वरूप अर्जुन का विश्वरूप दर्शन, सम्पाती का समुद्रा स्थित बीता का दर्शन इन सभी स्थानों में योग्य अर्थ (e) का नहीं है। वर्म को पेय मानने में कोई आपति नहीं होनी चाहिए और इस स्थिति में मात्र अवकाश का मानने पर याति दोष भी स्पष्ट होने से उसमें अपरोक्ष व्यवहार की योग्यता भी जोड़ी गयी है । इस प्रकार लक्षण के विशेषण व विशेष पद के लिय की सिद्धि होती है।
भय पूर्वपक्षी सम्पूर्ण क्षण का शान
चरणका
एवं शक्तिं रजतादि में प्रवेश दिखाकर उसमें अतिव्याप्ति का दोष दर्शाते हैं क्योंकि उनमें भी फलव्याप्यता के अभाव के कारण अवेद्यता रहती है और साथ ही में अज्ञानी हूँ या इस प्रकार की परोक्ष व्यवहार की योग्यता भी रहती है।
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'यह रजत है '