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गौरी मुकर्जी
नहीं होने के कारण लक्षण में अतिव्याप्ति का दोष आ जाता है। कहा जा सकता है कि सत्ता साम्यत घट एवं प्रदीप सजातीय है अर्थात् दोनों में सत्ता जाति होने के कारण दोनों को एकदूसरे से विजातीय नहीं कहा जा सकता और यदि घर का प्रकाशन प्रदीप के द्वारा होता है (जो सबको मान्य है) तो घट अपने सजातीय से प्रकाशित ही हुआ, अप्रकाशित नहीं। ऐसी स्थिति में लक्षण घट आदि में अतिव्याप्त नहीं होगा। परन्तु ऐसा मानने पर संसार की कोई भी वस्तु विजातीय नहीं होगी। अतः विजातीय शब्द व्यर्थ हो जायगा एवं साथ ही लक्षण में प्रयुक्त सजातीय विशेषण निष्प्रयोजन हो जायेगा ।
चौथे निर्वचन का खंडन यह कह कर किया जाता है कि यदि सत्ता के बने रहने से प्रकाशता का व्यतिरेक या अभाव का न होना ही स्वप्रकाशता है, तो सुख एवं दुःख की व्याख्या कैसे होगी ? सुख और दुःख के लिए भी तो उपयुक्त लक्षण सही बैठता है, क्योंकि जब तक सुख या दुःख रहता है तब तक उसकी अनुभूति भी होती रहती है । अतः सुख, दुःखादि में लक्षण की अतिव्याप्ति होने से लक्षणदोष पूर्ण हो जाता है।
पंचम लक्षण भी निदुष्ट नहीं है क्योंकि दीपादि में यह अतिव्याप्त है। ऐसा इसलिए कि दीपक अपने अन्धकारनिवारणरूपी व्यवहार का हेतु (कारण) है और उसमें प्रकाशता भी है। अब यदि यहाँ ज्ञानरूपी व्यवहार के कारणत्व को लक्षण के स्वव्यवहार हेतुता के अर्थ में लिया आये तो भी अनुव्यवसाय में अतिच्याप्ति के दोष से बचा नहीं जा सकता । क्योकि अनुव्यवसाय नियायिकों के यहां) व्यवसायरूपी ज्ञान के व्यवहार का कारण भी है और उसमें प्रकाशता या वेधता भी है (क्योंकि वह दूसरे अनुव्यवसाय से ज्ञात होता ही है)। अत: वेद्य ज्ञान में भी अतिव्याप्त होने से अशुद्ध है।
इसके अतिरिक्त ग्रन्थकार (पूर्व पक्ष के रूप में) एक सूक्ष्म विश्लेषण के माध्यम से इसी लक्षण का खंडन करते हैं । आचार्य प्रश्न करते हैं कि “व्यवहारहेतुता" जिसका प्रयोग लहाण में हुआ है वह प्रकाश का विशेषण है अथवा उपलक्षण ? इसे विशेषण नहीं माना जा सकता क्योंकि मेक्षिकालीन आत्मा में सभी प्रकार के व्यवहार की समाप्ति रहने से अव्याप्ति का देोष भा जायेगा। यदि उपलक्षण माना जाये तो पुनः प्रश्न होगा कि वह विशेषण है या उपलक्षाण, और इस प्रकार अनवस्था दोष आ जायेगा। इस दोष से बचने के लिए यदि उपलक्षितत्व, उपलक्षित (ज्ञान) का स्वरूप माना जाये तो लक्षण का स्वरूप "ज्ञान प्रकाश:" यही होगा और उसमें भामाश्रय दोष होगा या ज्ञान की प्रकाशता प्रसिद्ध होने के कारण “ ज्ञान प्रकाश" है यह कहना वैसा ही होगा जैसा यदि कोई कहे कि घट ही घट है । लक्षण का स्वरूप लक्ष्य से सर्वथा भिन्न होना चाहिए | लक्ष्य को हो. लक्षण नहीं माना जा सकता । इसके अतिरिक्त जड़ ज्ञान के लिए भी ज्ञान प्रकाश।" यह लक्षण सही बैठना है अतः नैयायिक सम्मत जर ज्ञान में भी लक्षाण की भतिव्यापित होगी।15
___ष्ठ लक्षण में असंभवता है। यदि स्वप्रकाश को ज्ञान का विषय न माना जाये तो अनुमान आदि सब प्रमाण पथ हो जायेंगे, जब कि स्वप्रकाश (ग्रहा) का ज्ञान हमें श्रुति प्रमाण से होता