Book Title: Sambodhi 1984 Vol 13 and 14
Author(s): Dalsukh Malvania, Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
Publisher: L D Indology Ahmedabad
View full book text
________________
चित्सुखाचार्य के अनुसार स्वप्रकशता की अवधारणा
२१
शराविषाण, आकाशकमल आदि भी हैं क्योंकि ये अर्थ रूप में प्रकट नहीं हो सकते । इसीलिए अन्य निम्ति दो गयी। (7) ज्ञानाविषयत्वे सति अपरोक्षात्वम् (शानस्य अविषयत्वे सति अपरोक्षात्वम् स्वप्रकाशत्वम्) अर्थात् वह जो ज्ञान का विषय न होते हुए भी अपरेका हो । (8) व्यवहारविषयत्वे सति ज्ञानाविषयत्वमू-वह जिसमें व्यवहार की विषयता हो किन्तु ज्ञान की विषयता न हो अर्थात जो वेद्य-न हो। (9) स्वप्रतिबद्ध व्यवहारे सजातीय परानपेक्षात्वम्-वह जो स्वसे या अपने से संबद्ध व्यवहार के लिए अपने ही सजातीय पर की अपेक्षा न रखता हो या वह जिसे अपने विषय में किये जाने वाले व्यवहार में अपने ही किसी सजातीय अन्य वस्तु की आवश्यकता न हो । अर्थात् जो अपने विषय में किये जाने वाले व्यवहार का स्वयं ही कारण हो । (10) अवेद्यत्वे सति अपरोक्षाव्यहारविषयाव- वह जिसमें अवेद्यता होते हुए भी अपरोक्ष व्यवहार की विषयता हो (ज्ञाता ज्ञेय ज्ञप्तृ भाव शन्यता होने से स्वप्रकाशता अवेद्य है)। (11) अवेद्यत्वे सति भपरेराक्षव्यवहार. योग्यता- वह जो अवेद्य हो एवं उसमें अपरोक्ष व्यवहार की योग्यता हो ।
___लक्षणों के जो वाच्यार्थ निकलते हैं उससे उन लक्षणों में अतिव्याप्तिा ३, अव्याप्ति आदि: दोष दिखाये जाते हैं। इसका सीधा-सीधा अर्थ यही समझना चाहिए कि किसी एक तत्त्वविशेष को व्याख्यायित करने के लिए लक्षण निर्माण की चेष्टा की जाती है । जितने भी लक्षण दिये गये हैं यदि वे सब उस तत्त्वविशेष की ही व्याख्या करते, तभी उनकी सार्थकता मानी जा सकती थी। अन्यथा यदि शब्दों की अनेकार्थता के कारण स्वप्रकाश तत्व के किसी लक्षण का या किसी लक्षणविकल्प से स्वप्रकाशेतर तत्त्व का बोध होता है, तो वह लक्षण साधु नहीं माना जा सकता है । यही उसकी अतिव्याप्ततादि दोष है।
लक्षणों का विश्लेषण
स्वप्रकाश का प्रथम लक्षण ग्रहण करने योग्य नहीं है क्योंकि सत्ता एवं प्रकाशता (वेद्यता) किसी भी वेद्य पदार्थ घट, पट आदि में होने के कारण लक्षण का वेद्य पदार्थ में प्रवेश हो जाता है, जिससे लक्षण अतिव्याप्ति दोष से ग्रस्त हो जाता है।
दूसरे लक्षण का बहिष्कार इस आधार पर किया जाता है कि स्वयं स्वयं का प्रकाशक नहीं हो सकता है। ऐसा होने पर स्वयं ही कर्ता एवं स्वयं ही कर्म भी हो जायगा जो असम्भव है। किसी भी क्रिया का जो कर्ता होता है वही कर्म भी नहीं होता । इसे उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है-जैसे मैं निबन्ध लिख रही हूँ-ईस क्रिया का कर्ता मैं हूँ
और कर्म है निबन्ध । यदि जो कर्ता है वही कर्म भी है ऐसा माना जाय तो मैं "मैं", लिख रही हूँ इस प्रकार का प्रयोग हो जायेगा।
तीसरा लक्षण भी दोषयुक्त है क्योकि घट, पट प्रदीपादि सभी अपने सजातीय अन्य प्रकाश से अप्रकाशित ही रहते हैं अर्थात् घट या प्रदीप का प्रकाशन दुसरा घट या दूसरा प्रदीप नहीं करता वरन् घट का प्रकाशक प्रदीप होता है जो सजातीय नहीं है, यह सभी को ज्ञात है । अतः घट, प्रदीपादि में पूरा लक्षण चला जाता है लेकिन घट, प्रदीपादि विवक्षित