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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
एम.ए. दर्शनशास्त्र पूर्वार्द्ध और सन् १९६३ में एम.ए. दर्शनशास्त्र उत्तरार्द्ध की परीक्षाएँ न केवल प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान पाकर उत्तीर्ण की, अपितु तत्कालीन पश्चिमी मध्य-प्रदेश के एकमात्र विश्वविद्यालय विक्रम विश्वविद्यालय की कला संकाय में द्वितीय स्थान प्राप्त कर कलासंकाय का रजत पद भी प्राप्त किया । ज्ञातव्य है कि उस समय कला संकाय में सामाजिक विज्ञान संकाय भी समाहित था और सम्पूर्ण संकाय में द्वितीय स्थान प्राप्त कर लेना भी एक कठिन कार्य था।
एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् आपके जीवन में एक निर्णायक मोड़ का अवसर आया । सन् १९६२ में मोरारजी देसाई ने स्वर्ण नियन्त्रण अधिनियम लागू किया, फलस्वरूप स्वर्ण-व्यवसाय प्रतिबन्धित व्यवसाय के क्षेत्र में आ गया और इस व्यवसाय को प्रामाणिकता पूर्वक कर पाना कठिन हो गया और चोरी-छिपे धन्धा करना आपकी प्रकृति के अनुकूल नहीं था। अत: आपने अपने व्यवसाय को एक नया मोड़ देने का निश्चय किया । आपका छोटा भाई कैलाश, जो उस समय एम. काम.(अन्तिम वर्ष) में था, उसके लिए भी स्वतन्त्र व्यवसाय का प्रश्न था । अत: आपने स्वर्ण-व्यवसाय के स्थान पर कपड़े का व्यवसाय प्रारम्भ करने का निश्चय किया। कठिनाई यह थी कि इन दोनों व्यवसायों को किस प्रकार संचालित किया जाय, क्योंकि अभी भाई कैलाश को अपना अध्ययन पूर्ण कर लौटने में कुछ समय था ।
दर्शनशास्त्र के अध्यापन
एक ओर प्रबुद्ध वर्ग का आग्रह था कि दर्शन जैसे विषय में प्रथम श्रेणी एवं प्रथम स्थान से स्नातकोत्तर परीक्षा पास करके भी व्यावसायकि कार्यों से जुड़े रहना यह प्रतिभा का सम्यक् उपयोग नहीं है, तो दूसरी ओर पारिवारिक परिस्थितियाँ और दायित्व व्यवसाय के क्षेत्र का परित्याग करने में बाधक थे । वस्तुतः सरस्वती और लक्ष्मी की उपासना में से किसी एक के चयन का प्रश्न आ खड़ा हुआ था। यह आपके जीवन का निर्णायक मोड़ था । स्वर्ण नियन्त्रण कानून लागू होना आदि कुछ बाह्य परिस्थितियों ने भी जीवन के इस निर्णायक मोड़ पर आपको एक दूसरा ही निर्णय लेने को प्रेरित किया। फिर भी लगभग ५० वर्षों से सुस्थापित तथा अपने पूरे क्षेत्र में प्रतिष्ठित उस व्यावसायिक प्रतिष्ठान को एकाएक बन्द कर देना न सम्भव ही था और न ही परिवार के हित में । यह भी संयोग था कि सन् १९६४ के मध्य में म.प्र.शासन की ओर से दर्शनशास्त्र के व्याख्याताओं के कुछ पदों के लिए चयन की अधिसूचना प्रसारित हुई । जब आपको उस विज्ञापन की जानकारी हुई तो आपने भी सहज रूप से एक आवेदन पत्र प्रस्तुत कर दिया। आवेदन पत्र पहँचने के कुछ समय पश्चात् ही आपको म.प्र.शासन की ओर से दर्शनशास्त्र के व्याख्याता पद पर नियुक्ति का आदेश प्राप्त हुआ । आपने सोचा भी नहीं था कि यह सब इतने सहज रूप में हो जायेगा। अब यह निर्णय की घड़ी थी। एक ओर माता-पिता और परिजन व्यवसाय से जुड़े रहने का आग्रह करते थे तो दूसरी ओर अन्तर में छिपी ज्ञानार्जन की ललक व्यवसाय से निवृत्ति लेकर विद्या की उपासना हेतु प्रेरित कर रही थी । आपके भाई कैलाश, जो उस समय विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में एम. काम. के अन्तिम वर्ष में थे, उससे आपने विचार-विमर्श किया और उसके द्वारा आश्वस्त किये जाने पर आपने दर्शनशास्त्र के व्याख्याता के रूप में शासकीय सेवा स्वीकार करने का निर्णय ले लिया । फिर भी पिता जी का स्वास्थ्य और व्यवसाय का विस्तृत आकार ऐसा नहीं था कि आपकी अनुपस्थिति में केवल पिताजी उसे सम्भाल सकें, ये अन्तर्द्वन्द्व के कठिन क्षण थे । लक्ष्मी और सरस्वती की उपासना के इस द्वन्द्व में अन्ततोगत्वा सरस्वती की विजय हुई और दुकान पर दो मुनिमों की व्यवस्था करके आप शासकीय सेवा के लिए चल दिये । ज्ञातव्य है कि एक व्याख्याता के रूप में आपको जो वेतन मिलना था-उसकी अपेक्षा दो मुनिमों को दिया जाने वाला वेतन कहीं अधिक था । फिर भी आपकी दृष्टि में अर्थ की प्रधानता महत्त्वपूर्ण नहीं थी।
आपकी प्रथम नियुक्ति महाकौशल महाविद्यालय, जबलपुर में हुई । संयोग से वहाँ आपके पूर्व परिचित उस समय के आचार्य रजनीश (बाद के भगवान् और ओशो) उसी विभाग में कार्यरत थे। आपने उनसे पत्र व्यवहार किया और दीपावली पर्व पर लक्ष्मी की अन्तिम अराधना करके सरस्वती की उपासना के लिए ५ नवम्बर, १९६४ को जबलपुर के लिए प्रस्थान किया । बिदाई दृश्य बड़ा ही करुण था । पूरे परिवार और समाज में यह प्रथम अवसर था जब कोई नौकरी के लिये घर से बहुत दूर जा रहा था । मित्रगण और परिजनों का स्नेह एक ओर था, तो दूसरी ओर आपका दृढ़ निश्चय । पिताजी की माँग पर बड़े पुत्र को उनके पास रखने का आश्वासन देकर अश्रुपूर्ण आँखों से बिदा ली।
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