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जैन साहित्य में सन्त शब्द का अधिक प्रयोग नहीं हुअा है। योगोन्दु ने सर्व प्रथम सन्त शब्द का निम्न प्रकार प्रयोग किया है।
शिगरजरः झारःमः परत:। हारा
जो एहउ सो सन्तु सिउ सासु मुरिणजहि भाउ ॥११६७। यहां सन्त शब्द साधु के लिये ही अधिक प्रयुक्त हुआ है। यद्यपि लौकिक दृष्टि से हम एक गृहस्थ को जिसकी प्रवृत्तियां जगत से अंलिप्त रहने की होती हैं, तथा जो अपने जीवन को लोकहित की दृष्टि से चलाता है तथा जिसकी गतिविधियों से किसी अन्य प्राणी को भी कष्ट नहीं होता, सन्त कहा जा सकता है लेकिन सन्त शम्प का शुद्ध स्वरूप हमें साधुओं में ही देखने को मिलता है जिनका जीवन ही परहितमय है तथा जो जगत के प्राणियों को अपने पावन जीवन द्वारा सन्मार्ग को ओर लगाते हैं। भट्टारक भी इसीलिये सम्त कहे जाते हैं कि उनका जीवन ही राष्ट्र को प्राध्यात्मिक खुराक देने के लिये समर्पित हो चुका होता है तथा वे देश को साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं बौद्धिक दृष्टि से सम्पन्न बनाते है । थे स्थान स्थान पर बिहार करके जन मानस को पावन बनाते है। ये सन्त चाहे भट्टारक वेश में हो या फिर ब्रह्मचारी के वेश में । ब्रह्म जिनदास केवल ब्रह्मचारी थे लेकिन उनका जीवन का चिन्तन एवं मनन अत्यधिक उत्कर्षमय था ।
भारतीय संस्कृति, साहित्य के प्रचार एवं प्रसार में धन सन्तों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। जिस प्रकार हम कबीरदास, सूरदास, तुलसीदास, नानक आदि को संतों के नाम से पुकारते हैं उसी दृष्टि से ये भट्टारक एवं उनके शिष्य भी सन्त थे और उनसे भी अधिक उनके जीवन की यह विशेषता थी कि वे घर गृहस्थी को छोड़कर यात्म विकास के साथ साथ जगते के प्राणियों को भी हित का ध्यान रखते थे । उन्हें अपने शरीर को जरा भो चिन्ता नहीं थी। उनका न कोई शत्रु भा और न कोई मित्र | वे प्रशंसा-निंदा, लाभ-अलाभ, तरण एवं कंचन में समान थे । वे अपने जीवन में सांसारिक पदार्थों से न स्नेह रखते थे और न लोभ तथा भासक्तिः। उनके जीवन में विक्रार, पाप, भय एवं आशा, लालसा भी नहीं होती थी।
थे भट्टारक पूर्णतः संयमी होते थे। भ. विजयकत्ति के संयम को डिगाने के लिये कामदेव ने भी भारी प्रयत्न किये लेकिन अन्त में उसे ही हार माननी पड़ी। विजयकोत्ति अपने संयम की परीक्षा में सफल हुए । इनका प्राहार एवं विहार पूर्णत: श्रमण परम्परा के अन्तर्गत होता था। १५, १६ वीं शताब्दी तो इनके उत्कर्ष की वाताब्दी थी । मुगल बादशाहों तफ ने उनके चरित्र एवं विद्वत्ता की प्रशंसा की थी। उन्हें देश के सभी स्थानों में एवं सभी धर्मावलम्बियों से प्रत्यधिक सम्मान मिलता