Book Title: Rajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Gendilal Shah Jaipur

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Page 12
________________ } किस्म अट्टगुगढ्डे भरपोष सिद्ध । अट्टमढविणविट्टे गिट्टियकज्जेय वंदिनी] पिच्च॑ ।। सिद्ध निराकार होते हैं। उनके भौदारिक, वैक्रियिक, माहारक, तैजस, कार्मारण, शरीर के इन पांच भेदों में से उनके कोई सा भी शरीर नहीं होता | योगीन्द्र इन्हें निष्कल कहा है । अर्हन्त एवं सिद्ध दोनों ही सर्वोच्च परमेष्ठी हैं इन्हें महा सन्स मो कहा जा सकता है। श्राचार्य उपाध्याय एवं सर्वसाधु शेष परमेष्ठी है । सर्वसाधुवे हैं जो आचार्य समन्तभद्र की निम्न व्याख्या के अन्तर्गत आते हैं । विषयाशावशातीतो निरारम्भो परिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरतः तपस्वी से प्रशस्यते 1 जो चिरकाल में जिन दोक्षा में प्रवृत्त हो चुके हैं तथा २८ मूल गुसों क पालन करने वाले है । वे माधु उपाध्याय कहलाते हैं जिनके पास मोक्षार्थी जाकर शास्त्राध्ययन करते हों तथा जो संघ में शिक्षक का कार्य करते हों। लेकिन वही साधु उपाध्याय बन सकता है जिसने साधु के चरित्र को पूर्ण रूप से पालन किया हो । तिलोपति में उपाध्याय का निम्न लक्षण लिखा है । अण्णारण चोरलिमिरे कुरंततीर हिउमारणाएं | मवियाज्जीयरा उवज्झया बरमद देतु । AN १. हिंसा अन्त तस्करी अब्रह्म परिग्रह पाप । मन च तन ते त्यागवो पंच महाव्रत थाप || ईर्ष्या भाषा एवणा, पुनि क्षेपन आदान | प्रतिष्ठापनात क्रिया, पांचों समिति विधान || सपरम रसना नासिका, नयन श्रोत का रोध । घट आशि मंजन लजन शयन भूमि को शोध || वस्त्र त्याग केचलोंच अरू, लघु भोजन एक बार दांत मुख में ना करें, ठाउँ लेहि आहार ।। २. चौदह पूरव को धरे, ग्यारह अङ्ग सुजान | उपाध्याय पच्चीस गुण पढे पहावं ज्ञान || ama

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