Book Title: Rajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Gendilal Shah Jaipur

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Page 11
________________ अर्थात् प्राणि मात्र जिसका मित्र है, सो निष्काम है, विषयों से दूर रहते हैं बे ही सन्त है। ___सुलसीदास जी ने सन्त शब्द की स्पष्ट ग्याल्या नहीं करते हुए निम्न साम्दों में सन्त पौर प्रसन्त का भेद स्पष्ट कि है ! वन्दों सन्त प्रसज्जन चरा, दुख प्रद उभय बीच कछु बरणा । हिन्दी के एक कवि विट्ठलदास ने सन्तों के बारे में निम्न शब्द प्रयुक्त किये है। सन्तनि को मिकरी मिन काम । प्रावस जात पनियां टूटी विसरि गयो हरि नाम ॥ प्राचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने 'उत्तर भारत की सन्त परम्परा" में सन्त शब्द की विवेचना करते हुये लिखा है...''इम प्रकार सन्त शब्द बा मौलिक अर्थ'' शुद्ध अस्तित्व मात्र का हो बोधक है और इसका प्रयोग भी इसी कारण उस नित्य वस्तु का परमतत्व के लिये अपेक्षित होगा जिसका नाश कभी नहीं होता, जो सदा एक रस तथा अविवृत रूप में विद्यमान रहा करता है और जिसे सन्त के नाम से भी अभिहित किया जा सकता है। इस शद के "सत" रूप का ब्रह्म वा परमात्मा के लिये किया गया प्रयोग बहधा दिक साहित्य में गो पाया जाता है"१ जैन साहित्य में सन्त शब्द का बहुत कम उल्लेख हुआ है । साघु एवं श्रमगा ग्राचार्य, मुनि, शहारक, अति आदि के प्रयोग की ही प्रधानता रही है । स्वयं भगवान महावोर को महाश्चमण कहा गया है। साधुओं की यहां पांच गियां है जिन्हें पंच परमेष्ठि कहा जाता है ये परमेष्टी अर्हन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय एवं सवं. साधु हैं इनमें अहन्त एवं सिद्ध सर्वोच्च परमेष्टी हैं। बहन सफल परमात्मा को कहते है । अहंतपद प्राप्त करने के लिये तीर्थकरत्व नाम कर्म का उदय होना अनिवार्य है । वे दर्शनावरणीय, ज्ञानावरणीय, मोहनीय एवं अन्तराव इन चार कौ का नाया कर चुके होते हैं तथा शेष चार कर्म वेदनीय, आयू, नाम, और गोत्र के नाश होने तक संसार में जीवित रहते हैं। उनके समवशरण की रचना होती है और वहीं उनकी दिव्य ध्वनि [ प्रवचन ] खिरती है। सिम मुक्ताल्मा को कहते हैं। वे पूरे आर कमौ का क्षय कर चुके होते हैं । मोक्ष में विराजमान जीव सिद्ध कहलाते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने सिद्ध परमेष्ठी का निम्न स्वरूप लिखा है। ran -man u man- arun १. देखिये 'उत्तरी भारत की सम्स परम्परा' पृष्ठ संख्या ४

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