Book Title: Rajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva Author(s): Kasturchand Kasliwal Publisher: Gendilal Shah Jaipur View full book textPage 9
________________ 4 I ! ( ग ) ये भट्टारक अपना आचरण संघ के प्रमुख होते थे इन ३०० वर्षों में अस्तित्व नहीं रहा श्रमण परम्परा के पूर्णतः संघ में मुनि, ब्रह्मचारी, इन भट्टारकों के अतिरिक्त इसलिए वे भट्टारक एवं जनता द्वारा पूजित थे अनुकूल रखते थे। ये अपने are भी रहा करती थी। अन्य किसी भी साधु का स्वतंत्र उनके शिष्य ब्रह्मचारी पक्ष वाले सभी संत थे " ' इसी व्याख्या को ध्यान में रखकर हमें जैन संतों की इन तीन सौ वर्षों में जैन संतों की भी परम्परा का अवगाहन करना अपेक्षित है । एक दीर्घ परम्परा के दर्शन हमें यहां होते हैं। जैन धर्म में एक स्थिर श्रेणी-व्यवस्था में इन संतों का अपना एक स्थान विशेष है और वहां इनका श्रेणी नाम भी कुछ और है - इस ग्रन्थ के द्वारा डा० कासलीवाल ने एक बड़ा उपकार यह किया है कि उन विशिष्ट वर्गों को हिन्दी की दृष्टि से एक विशेष वर्ग में दिया है अब संतों का अध्ययन करते समय हमें होगी। लाकर नये रूप जैन संतों पर भी में खड़ा कर दृष्टि डालनी इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि जैनदर्शन की शब्दावली अपना विशिष्ट रूप रखती है, फिर भी सत शब्द के सामान्य अयं के योतक लक्षण और गुण सभी सम्प्रधार्थी और देशों में समान हैं, जैन संतों के काव्य में जो अभिव्यक्ति हुई है. उससे इसकी पुष्टी ही होती है । अध्ययन और प्रभुसंधान का पक्ष यह है कि 'संतत्व' ~ का सामान्य रूप जैन संतों में क्या है ? और वह विशिष्ट पक्ष क्या है जिससे अभिमंडित होने से वह 'संतत्व' जैन हो जाता है । स्पष्ट है कि जैन संतों का कोई विशेष सम्प्रदाय उस रूप में एक पृथक प्रवर्तित संत पंथ या संत सम्प्रदाय एक संत सम्प्रदाय बड़े हुए उन्होंने सभी ने पैदा किया। फलत: जैन संतों का कृतित्व । पंथ नहीं है जिस प्रकार हिन्दी में कबीर से प्रथक अस्तित्व रखता है और फिर जितने 'कबीर' की परम्परा में ही एक वैशिष्ट्य - एक विशिष्ट स्वतंत्र तात्विक भूमि देगा यों जैन धर्म में भी कुछ अलग अलग पंध हैं, छोटे भी बड़े भो, उनके सत भी हैं। उनके धर्मानुकूल इन संतों की रचनाओं में भी आंतरिक वैशिष्ट्य मिलेगा । डा० कासलीवाल ने इस ग्रन्थ में केवल राजस्थान के हो जैन संतों का परिचय दिया है- यह अन्य क्षेत्रों के लिए भी प्रेरणा प्रद होगा। फलतः डा०] कासलीवाल का यह ग्रन्थ हिन्दी में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करेगा, ऐसी मेरी धारणा है । में डा० कासलीवाल के इस ग्रन्थ का हृदय से स्वागत करता हूँ | जयपुर २८-६-६७ डा० सत्येन्द्रPage Navigation
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