Book Title: Rajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva Author(s): Kasturchand Kasliwal Publisher: Gendilal Shah Jaipur View full book textPage 8
________________ कृत कारणों से जिसमें कई परिवर्तन हो गये।"-इस संकेत से अनुसंधान की एक उपेक्षिस दिवा का पता चलता है। यह बात तो प्रायः माज मानली गयी है कि जैन धर्म की परम्परा बौद्ध धर्म से प्राचीन है पर जहां बौद्ध धर्म की पृष्ठ भूमि का भारतीय साहित्य की दृष्टि से गंभीर अध्ययन किया गया है वहां जैन धर्म को पृष्ठ भूमि पर उतना गहरा ध्यान नहीं दिया गया। यह संभव है कि 'निरंजन' में कोई जैन प्रभाव सन्निहित हो, और वह उसके तथा अन्य माध्यमों से 'संतमत' में भी उतरा हो । पर यथार्थ यह है कि जैन धर्म के योगदान को अध्ययन करने के साधन भी अभी कृष्ट ममय पूर्व तक कम ही उपलब्ध थे 1 आज जो साहित्य प्रकाश में आ रहा है. वह कुछ दिन पूर्व कहां उपलब्ध था। जैन भाण्डागारों में जो अमूल्म ग्रन्थ सम्पत्ति भरी पड़ी है उसका किसे ज्ञान था। जैसलमेर के ग्रंथागार का पता तो बहुत था पर कर्नल केमुल टाड को भी बड़ी कठिनाई से वह देखने को मिला था । नागौर का दूसरा प्रसिद्ध जन प्रथागार तो न प्रयत्नों के पगात साउगोग के लिए नहीं खोला जा सका था। पर अरज कितने ही जैन भाण्डागारों की मुद्रित. सुत्रियां उपलब्ध हैं। कई संस्थार जैन साहित्य के प्रकापान में लगी हुई हैं। डार कासलीवाल ने भी ऐसे ही कुछ अलभ्य और ऐतिहासिक महस्व के ग्रन्थों को प्रकाश में लाने का शुभ प्रयल किया है 1 जन भण्डारों की सूचिया, 'प्रय म्न परित,' 'जिगदत्त चरित' प्रादि को प्रकाश में लाकर उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहाग की प्रज्ञात कड़ियों को जोड़ने का प्रयास किया है। जैन संतों का यह परिचयात्मक ग्रंथ भी कुछ ऐसे ही महत्व का है। . - डा. कासलीवाल ने बताया है कि 'संत' शब्द के कई अर्थ होते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि 'संत' शन्य एक ओर तो एक विशिष्ट संप्रदाय के लिया प्राता है, जिसके प्रवर्तक कबीर माने जाते हैं। दूसरी ओर 'संत' शब्द मात्र गुणवाचक, और एक ऐसे व्यक्ति के लिए उपयोग में आ सकता है जो सज्जन और साधु हो । तीसरे अर्थ में 'संत' विशिष्ट धार्मिक अर्थ में प्रत्येक सम्प्रदाय में ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों के लिए प्रा सकता है, जो सांसारिकता और इंद्रिय विषयों के राग से ऊपर उठ गये हैं। प्रत्येक सम्प्रदाय एवं धर्म में ऐसे संत मिल सकते हैं। ये संत सदा जनता के श्रद्धा भाजन रहे हैं अतः ये दिव्य लोकवार्ताओं के पात्र मी बन गये हैं। अग्रेजी शब्द Saint-सेन्ट संत का पर्यायवाची माना जा सकता है । ___ डा० कासलीवाल ने इस ग्रन्थ में संवत् १४५० से १७५० तक के राजस्थान के जैन संतों पर प्रकाश डाला है। इस अभिप्राय से उन्होंने यह निरूपण किया है कि-इन ३०० वर्षों में महारक ही आचार्य, उपाध्याय एवं सार्वसाधु के रूप मेंPage Navigation
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