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प्रस्तावना
मारतीय इतिहास में राजस्थान का महत्वपूर्ण स्थान है। एक और यहां की भूमि का करण का वीरता एवं शौर्य के लिये प्रसिद्ध रहा तो दूसरी और भारतीय साहित्य एवं संस्कृति के गौरवस्थल भी यहां पर्याप्त संख्या में मिलते हैं। यदि
राजस्थान के वीर योद्धाओं ने जननी जन्म-भूमि की रक्षार्थ हसते हंसते प्राणों को न्यौछावर किण तो यहां होने वाले प्राचार्यो, मट्टारकों, मुनियों एवं साधुओं तथा विद्वानों ने साहित्य की महती सेवा की और अपनी कृतियों एवं काव्यों द्वारा जनता में देशभति, नैतिकता एवं सांस्कृतिक जागरूकता का प्रचार किया। यहां के रणथम्भोर, कुम्भलगढ़, नित्तौड़, भरतपुर, मांडोर जैसे दुर्ग यदि वीरता देशमक्ति, एवं त्याग के प्रतीक है तो जैसेलमेर, नागौर, बीकानेर, अजमेर, पामेर, डूगरपुर, सागवाड़ा, जयपुर आदि कितने ही नगर राजस्थानी ग्रंथकारों, सन्तों एवं साहित्योपासकों के पवित्र स्थल है जिन्होंने अनेक संकटों एवं झंझावातों के मध्य भी साहित्य की अमूल्य धरोहर को सुरक्षित रस्वा । वास्तव में राजस्थान की भूमि पावन है तथा उसका प्रत्येक करण वन्दनीय है।
__राजस्थान की इस पावन भूमि पर अनेकों सन्त हुए जिन्होंने अपनी कृतियों के द्वारा भारतीय साहित्य की प्रजन धारा बहामी तथा अपने प्राध्यात्मिक प्रवचनों, गीतिकाव्यों एवं मुक्तक छन्दों द्वारा देश में बन जीवन के नैतिक घरातस को कभी गिरने नहीं दिया । राजस्थान में ये सन्त विविध रूप में हमारे सामने आये और विभिन्न धर्मों की मान्यता के अनुसार उनका स्वरूप मी एकसा नहीं रह सका ।
___ 'सन्त' शब्द के अब तक विभिन्न अर्थ लिये जाते रहे हैं वैसे सन्त बाब्द का व्यवहार जिसना गत २५, ३० वर्षों में हुआ है उतना पहिले कभी नहीं हुआ । पहिले जिस साहित्य को भक्ति साहित्य एवं अध्यात्म साहित्य के नाम से सम्बोधित किया जाता था उसे अब सन्त साहित्य मान लिया गया है। कबीर, मीरा, सूरदास तुलसीदास, दादूदयाल, सुन्दरदास आदि सभी भक्त कवियों का साहित्य सन्त के साहित्य की परिभाषा में माना जाता है। स्वयं कबीरदास ने सन्त शब्द की जो ध्याख्या की है वह निम्न प्रकार है।
निरवरी निहकामता सोई सेती नेह । विषियांस्यू न्यारा रहे, संतनि को ग्रङ्ग एह ।।