Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 13
________________ मैंन जानबूझकर कुछ भी विपरीत आचरण नहीं किया है। मैंने अनजान में कुछ गलती की हो तो, ऐसा दंड क्यों दिया? देव! आपने वह प्रेम, वह सेवा, वह संभाषण आदि सब कुछ क्षणमात्र में ही भूला दिया। इस प्रकार कलावती अत्यन्त विलाप करने लगी। इतने में ही उसका पेट आकुलित होने लगा। अपने प्रसूति का अवसर जानकर, वह शर्म से नदी के तट की ओर चली गयी। उसने वन की झाड़ी में, तपे स्वर्ण की कांति सदृश पुत्र को जन्म दिया। विशाल नेत्रवाले उस बालक को देखकर, कलावती अत्यन्त आनंदित हुई। पुत्र जन्म रूपी संजीवनी प्राणी को विपत्ति आने पर भी सुख देता है। भारी शोक से हृदय भर जाने पर भी हँसाता है, और मृतप्रायः को भी जीवित कर देता है। इसी बीच वह बालक नदी के तट पर, यहाँ-वहाँ लोटने लगा । कलावती ने भी जैसे-तैसे कर अपने पैरों से प्रेमपूर्वक बालक को पकड़ लिया । और करुणा सहित कहने लगी-हे निर्दयी भाग्य ! इतना करने पर भी क्या तू खुश नहीं हुआ है? जो स्वयं आज मुझे पुत्र देकर अपहरण करना चाहते हो? वे वाघण अथवा वे कुत्तियाँ भी धन्य हैं, जो अपने दांतों के अग्र भाग से, अपने बालकों को पकड़कर, अपने इच्छितस्थान पर पहुँच जाती हैं । हे परमेश्वरी नदी! हे माता ! इस समय मैं तुझे सविनय नमस्कार करती हूँ। मेरे पुत्र का अपहरण मत करना, क्योंकि तुम प्राणियों को जीवनदाता हो । यदि जगत् में शील जयवंत है, यदि जरा भी मैंने शील को कलंकित न किया हो तो हे ज्ञाननेत्रवाली देवी! तुम मेरे बालक के पोषण का उपाय कर। यदि इस जन्म में, मैंने मन, वचन, काया से सुंदर शील का पालन किया हो, तो मेरे दोनों बाहु वापिस प्रकट हो जायें । दिव्य शील के प्रभाव से, दया परायण नदी देवी ने कलावती के दोनों बाहु क्षणमात्र में ही नवीन कर दिये । बाहु के दर्शन से, अमृत से सिंचित के समान अपूर्व शरीर की शोभा धारण की। कलावती खुद को देवी के समान मानती हुई अपने हाथों से पुत्र को ग्रहण किया । पुत्र को अपने अंक में रखकर क्षणभर के लिए खुश हुई। बाद में तथा प्रकार के दुःख का स्मरण कर रोने लगी। मुझे जीवन से क्या प्रयोजन है? जिससे तिरस्कार पात्र बनी थी। किन्तु इस अनाथ पुत्र को छोड़ने में मैं असमर्थ हूँ। दूसरा सोचा था और भाग्य के वश से अन्य ही घटित हो गया। निर्भाग्यवंतों का हृदय में सोचा कभी नहीं होता है। मैंने सोचा था कि पुत्रजन्म का महोत्सव पिता करेंगे। किन्तु भाग्य के वश से भयंकर परिणाम सामने आया है। हा! तुच्छ मनोभाववाले, स्नेहरहित और निर्दयी मनुष्यों को धिक्कार हो, जो कभी कृत्याकृत्य का विचार नहीं करते हैं। तत्क्षण स्नेह दिखानेवाले और तत्क्षण ही संताप देनेवाले जो मनुष्य हैं, वे सूर्य के समान दूर से ही वंदनीय हैं। इस प्रकार विलाप करती कलावती को किसी तापस 8

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