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में अवतीर्ण हुई। स्वप्न में रत्न की आवली (श्रेणि) को देखने से उसका रत्नावली नाम रखा। क्रम से यौवन अवस्था में आई। चौसठ कलाओं में भी कुशल बनी। सैंकड़ों हित शिक्षाएँ देने पर भी, किसी कारण से वह पुरुषों पर से अपना द्वेष नहीं छोड़ रही थी।
रवितेज राजा ने स्वयंवर मंडप का आयोजन किया और चारों ओर से पडौसी राजपुत्रों को आह्वान किया। पिता के द्वारा आज्ञा देने पर, श्रेष्ठ सैन्य से युक्त और देव के समान देदीप्यमान देवरथ ने भी प्रयाण किया। मार्ग में जाते हुए, कुमार ने पंख छेदे पक्षी के समान, उड़ने की इच्छावाले, किन्तु उड़ने में असमर्थ किसी विद्याधर को देखा। कुमार ने पूछा-भाग्यशाली! आप कहाँ से आये हैं?
और इस भयंकर अटवी में अकेले क्यों हैं? तब विद्याधर ने कहा-वैताढ्य पर्वत के कुंडलपुर नगर में, श्रीध्वज राजा राज्य कर रहा है। मैं उसका चन्द्रगति नामक पुत्र हूँ। एक दिन मैं वंश परंपरा से प्राप्त विद्या का अभ्यास कर रहा था। अचानक ही पर्वत की ऊँची भूमि से, किसी तरुणी की दयाजनक आवाज सुनाई दी। मैं विस्मित होते हुए उस ओर दौड़ा। तब सखिजनों से वींजी जाती और मूर्च्छित बनी एक युवती को देखा। उतने में ही युवती की सखियों ने मुझे उद्देशकर कहासज्जन पुरुष! शीघ्र आओ। दयानिधि! सर्प के विष से विह्वल बनी गंधर्वराजा की इस पुत्री को शीघ्र ही प्राणदान देकर उपकार करो। मैंने भी अपनी मद्रारत्न के पानी से उसे स्वस्थ किया। विष की पीड़ा नष्ट हो जाने पर, वह होश में आयी। तब उस युवती ने अपनी सखीजन के मुख अश्रुजल से भीगे तथा बाद में खिले हुए देखे। यह देखकर, कन्या ने पूछा-सखी! तुमने विरुद्ध आकृति क्यों धारण की है? इसका कारण कहो? तब उन्होंने कहा-बहन! तुम सर्प के विष से पीड़ित थी। इस परोपकारी पुरुष ने तुझे जीवित किया है। हमारी मुख आकृति इसलिए ही बदल गयी थी। यह सुनकर, वह कन्या मुझ पर अनुरागी बनी।
इसी बीच गंधर्वराजा भी वहाँ आ गया। मुझे श्रीध्वज का पुत्र जानकर, गौरव सहित इस प्रकार कहने लगा-कुमार! तुम सन्माननीय हो। मैं तुझ उपकारी को क्या दे सकता हूँ? मेरी इस कन्या का तुम हाथ ग्रहण कर लो। राजा का आग्रह मानकर, मैंने महोत्सवपूर्वक उसके साथ विवाह किया। अपनी नगरी में आकर सुखपूर्वक रहने लगा। जब मैं उद्यान से वापिस लौट रहा था, तब इसी प्रदेश में, मुझे मेरी पत्नी के फोई (पिता की बहन का पुत्र) का पुत्र सुमेघ विद्याधर मिला था। सुमेघ विद्याधर मुझ पर आक्रोश करते हुए कहने लगा-मेरे मामा की पुत्री से विवाह कर, अभी भी मेरे सामने खड़े हो? मैं तुझे अन्याय का फल चखाता हूँ। इस प्रकार कहते हुए वह युद्ध के लिए तैयार हुआ। उसका सामना करने के लिए मैं भी तैयार हुआ। किन्तु व्याकुलता के कारण, मैं विद्या का एक पद भूल गया था।
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