Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

View full book text
Previous | Next

Page 87
________________ व्यय से बलि, पूजा आदि का विधान सामग्री के द्वारा संपूर्ण की। पश्चात् खनिजकारों के साथ पर्वत के मध्यभाग पर चढ़ा। उन्होंने विष्ट को पलाशवृक्ष का मूल दिखाया। विष्ट भी उस प्रदेश के समीप गया। कहा भी गया है कि - धन बिना क्षीर रहित वृक्षों के अंकुर नहीं निकलतें है। और निश्चय ही बिल्व और पलाश वृक्ष के नीचे अल्प अथवा बहुत धन होता है। वह देखकर सरलबुद्धिवालें विष्ट ने उनसे स्पष्ट कह दिया कि निधि मिल चुकी है, किंतु क्या यहाँ स्वर्ण, मणि आदि की प्राप्ति होगी? तब उन्होंने कहा - यदि वृक्ष के पाद से लालरस निकल रहा हो तो निश्चय से मणि प्राप्त होगी, पीला रस निकलने से पीला स्वर्ण तथा सफेद रस से सफेद स्वर्ण की प्राप्ति होगी। वृक्ष के पाद का छेदन करने पर, लाल रस निकला। पश्चात् पूजा आदि का विधानकर, संतुष्ट हुए उन खनिजकारों ने वह निधि बाहर निकाली। अपने इष्ट कार्य को पूर्ण करनेवाले उस विष्ट से कहा - इस समय हम इस निधि को ले जा रहें हैं। रात के समय इसे तेरे घर पर वापिस ले आयेंगें। उस कारण से लोभी हृदयवाला तथा सरल बुद्धिवाला विष्ट भी अपने नगर लौट आया। वे खनिजकार भी रत्नों को ग्रहणकर, शीघ्र ही वहाँ से पलायन कर लिया। विष्ट वापिस वहाँ आया, किंतु उन्हें नहीं देखकर दुःखित हुआ और मूच्छित होकर भूमि पर गिर पडा। राजा भी यह बात जानकर, सेवकों के द्वारा उसे राजसभा में बुलाया। बाद में सर्वस्व का अपहरणकर, उसे देश से निकाल दिया। इस घटना से विष्ट भी उन्मादी बन गया और थोडे समय बाद मर गया। मरकर वह मुनि गोचरी की निंदा के कारण कुत्ता हुआ। जब वह कुत्ता रसोईघर में प्रवेश करने लगा, तब किसी रसोईये ने उसे मार दिया। आयुष्य पूर्णकर वह दरिद्र चांडाल हुआ और मरकर रत्नप्रभा नरक में गया। इस ओर न्यायनिष्ठ सुविष्ट तीनों वर्गों का पालन करते हुए आयुष्य पूर्णकर वह नरोत्तम उत्तमकुरु में युगलिक बना। देव ऋद्धि के समान, वहाँ पर सुखों को भोगकर स्वर्ग गया। वहाँ से च्यवकर इस विजय के जयस्थल नामक नगर में पभदेव व्यापारी की पत्नी देवकी की कुक्षि से पुत्र रूप में जन्म लिया। संपूर्ण गुणों की खाण सदृश उस बालक का गुणाकार नाम रखा। विष्ट का जीव भी नरक से निकलकर धनंजय व्यापारी की पत्नी जया की कुक्षि से पुत्र के रूप में जन्म लिया। उसका गुणधर नाम रखा। पूर्वभव के प्रेम रूपी पानी से सिंचित गुणाकर-गुणधर की प्रीति रूपी लता परस्पर बढती गई। यौवन अवस्था प्राप्तकर, वे दोनों धनार्जन में तत्पर हुए। एकदिन उस नगर के उद्यान में धर्मदेव नामक मुनिभगवंत पधारे। तब वे दोनों उनके समीप जाकर धनार्जन का उपाय पूछा। मुनिभगवंत ने भी कहा - धर्म अकेला ही धर्नाजन का कारण होता है। पुष्कल पुण्यवाला पुरुष यदि पर्वत, गुफाओं के अंदर चला जाएँ तो भी हाथ में दीपकलिका 82

Loading...

Page Navigation
1 ... 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136