Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 123
________________ भूमि पर अवतीर्ण देवी के समान उसकी प्रियमती देवी थी । परस्पर घनिष्ठ प्रेम से बंधे हुए तथा श्रीजिनधर्म में रत इन दोनों के कितने ही दिन सुखपूर्वक बीत गएँ। कनकध्वज देव विजय विमान से च्यवकर प्रीयमति की कुक्षि में पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुआ। तब निद्राधीन प्रियमती देवी को स्वप्न आया कि - अपने सिंहासन पर बिठाकर राजा ने स्वयं मेरे मस्तक पर मणिस्वर्णमय कांतिमान् मुकुट स्थापित किया है। प्रियमति ने जागकर, जगत् में उत्तम ऐसे उस स्वप्न के बारे में राजा से कहा । जयराजा ने कहा- प्रिये ! तेरा पुत्र महाराजा होगा। एकदिन गीष्मऋतु के समय जयराजा ने प्रियमती के साथ चिर समय तक उद्यान की वापियों में जलक्रीडा की। पश्चात् आम्रवृक्ष के नीचे बैठकर, राजा वीणा बजाने लगा। वन में राजा को देखकर कोई व्यंतरी सौभाग्य के अतिशय से, उसके रूप पर मोहित बनी । परस्त्री से विमुख रहनेवाले राजा ने उसका निषेध कर दिया। प्रेमपाश के वश वह व्यंतरी विवशता के कारण निराश होकर लौट गयी । पुनः मौका प्राप्तकर प्रियमती का रूप धारणकर व्यंतरी राजा के समीप, आयी। न्यायनिष्ठ राजा ने भी जान लिया कि यह प्रियमति नही है, किंतु वह ही . व्यंतरी है जिसने प्रियमती का रूप धारण किया है। इस प्रकार विचारकर राजा ने मुष्टि के प्रहार से उसे घायल किया और शक्तिहीन बना दिया। पश्चात् उस व्यंतरी को अपनी इच्छित प्राप्ति से दूर कर, राजा ने उसे निकाल दिया। राजा प्रियमती के महल में गया, किंतु उस प्रिया को नही देखते हुए - हा! किसी ने मेरी प्रिया का अपहरण कर लिया है इस प्रकार शोक करने लगा। राजा ने चारों ओर उसकी तलाश करायी। जब प्रियमती कहीं पर दिखायी न दी तब राजा ने अपने चित्त में अभिग्रह धारण किया कि - प्रिया के समागम के बाद, मैं इस महल में नही रहूँगा । राज्य, धन आदि का त्यागकर मैं संयम स्वीकार करूँगा । व्यंतरी ने प्रियमती को भयंकर अरण्य में छोड़ दिया। वह शेर, सिंह, सूअर आदि के भय से मन में काँपने लगी । विलाप करती हुई वह विषम मार्ग पर आगे बढ़ने लगी। भूख-प्यास और ताप के कारण पीड़ा का अनुभव करने लगी। उसी वन में निवास कर रही तापसियों ने उसे देखा । प्रियमती को आश्वासन देकर, कुलपति के सामने ले गयी। कुलपति ने अपने आश्रम में कितने ही दिनों तक बहुमानपूर्वक उसे रहने दिया । गर्भ के भार से प्रियमती का चलन मंद पड़ गया था। यह देखकर कुलपति ने अपने वृद्ध तापसों के साथ उसे श्रीपुर पहुँचाया। नगर के उद्यान में रहे जिनालय में जाकर उसने अरिहंत को नमस्कार किया। उसी समय वहाँ पर कोई जिनसुंदरी नामक श्राविका आयी। साधर्मिकी ! मैं तुझे वंदन करती हूँ इस प्रकार कहकर उससे वार्त्तालाप करने लगी। प्रियमती का चरित्र सुनकर, जिनसुंदरी ने उसे आश्वासन दिया और अपने घर ले गयी। पश्चात् वह 118

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