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लोक भी मिलने आएँ और राजा ने मेरा संमान किया। मेरी नूतन पत्नी भी वापिस आ गयी थी और कपिला ने आदर सहित उसे घर में प्रवेश कराया। गधे की आवाज सुनकर, केशव जाग गया और सोचने लगा - अहो ! घर में ही धन होते हुए भी, मैं व्यर्थ ही बाहर भटक रहा हूँ। ऐसा विचारकर, आनंदित होते हुए, वह वापिस अपने घर में लौट गया।
अपने पति को आनंदित देखकर, कपिला ने सोचा- मालूम पडता है कि यह बहुत स्वर्ण लेकर आया है। कपिला ने स्नान आदि से सत्कार किया । पश्चात् धन न देखकर, कपिला ने आक्रोश से पूछा क्या अर्जित धन को नही दिखाओगे? क्या मुझे भी ठगना चाहते हो? केशव ने कहा - शीघ्रता मत करो । पहले उधार से घी, गुड आदि लाकर स्वादिष्ट भोजन तैयार करो । कल स्वजनों को भोजन के लिए आमंत्रितकर, उनके सामने धन दिखाऊँगा । कपिला ने कहा कितना है? पहले मुझे तो दिखाओ, जिससे धन के दर्शन से मैं हर्ष धारण कर सकूँ। केशव ने कहा धन गुप्त स्थान पर है। स्वजनों के आगे ही निकालूँगा। इसलिए प्रिये! यदि धन चाहती हो, तो मेरे वचन के अनुसार करो । विलंब मत करो। उसकी बातों पर विश्वासकर, कपिला ने भी स्वजनों को आमंत्रण देकर भोजन कराया। नगर के लोक भी कौतुक देखने के लिए वहाँ पर एकत्रित हुए। स्वजनों को भोजन कराने के पश्चात् अपने केशों को बांधकर, स्वप्न में देखी भूमि को खोदने लगा। स्वजनों ने पूछा- तुम यह क्या कर रहे हो ? केशव ने कहा मेरा सारभूत धन यही पर है। उन्होंनें कहा - किसने और कब रखा है? केशव ने कहा - मैं उसके बारे में नही जानता हूँ, किंतु स्वप्न में इसी स्थान पर धन देखा था। तो तूंने उसी समय ग्रहण क्यों नही किया ? इस प्रकार स्वजनों के पूछने पर उस मूर्ख ने कहा- मैं ग्रहण कर ही रहा था, किंतु गधे की आवाज से जाग गया। उसकी बातें सुनकर अहो ! यह महामूर्ख है, ऐसा कहकर सभी हंसने लगे। पत्नी भी सिर पर हाथ रखकर, उसे धिक्कारने लगी। तो भी केशव ने खोदना बंध नही किया। अंत में दीवार के गिरने से उसने दुर्दशा प्राप्त की।
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केशव बटुक का यह वृत्तांत सुनकर, सभी हंसने लगे। पृथ्वीचंद्र ने कहा विष्णु ! मुझे सत्य कहो । केशव का चरित्र हास्यकारी है अथवा नही ? विष्णु ने कहा - स्वामी! निश्चय से हास्यकारी ही है। परंतु प्रभु! मैं आपसे पूछना चाहता हूँ, संपूर्ण प्राणी उसके समान कैसे है? तब पृथ्वीचंद्र ने कहा यह संसारी जीव भी केशव बटुक के समान जडात्मक है। वह कृत्य - अकृत्य, हित-अहित के बारे में नही जानता है। चौरासी लाख जीवयोनि में भटकते हुए ही अपना समय बीता रहा है। कर्मपरिणति के आदेश से उसने कभी स्वर्णभूमि सदृश मनुष्य योनि प्राप्त की। वहाँ पर अकाम निर्जश से अल्प पुण्य रूपी स्वर्ण को प्राप्त किया। इसीबीच
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