Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 133
________________ काम रूपी धूर्त से मोहित होकर विषय रूपी कन्या में आसक्त हुआ। पश्चात् सत्पुण्य रूपी स्वर्ण को हारकर नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव भव रूपी अनेक देशों में पर्यटन करने लगा। पुनः किसी भव रूपी गाँव में, किसी दयालु धर्माचार्य से तप रूपी दहिचावल के दान से स्वस्थ हुआ। वट रूपी प्रौढकुल को प्राप्तकर मोहनिद्रा से सोता है। वहाँ पर स्वप्न तुल्य प्रिय भोग से मोहित हो जाता है। ब्राह्मणी रूपी कर्मपरिणति का स्मरणकर यहाँ पर आता है। अज्ञान के कारण अविद्यमान लक्ष्मी की चाहना करता है। मोह के माहात्म्य को देखो। हाथी, अश्व, धन, भूमि, नौकर गण आदि पालन से श्रम को भी अद्वितीय सुख मानता है। इस प्रकार पृथ्वीचंद्रकुमार के वचनों से संसार की असारता जानकर, संवेग सहित प्रियाओंने कहा - प्रभु! आपका कथन सत्य है। संसार की स्थिति ऐसी ही है। पृथ्वीचंद्रकुमार ने कहा - भद्रे! अब तुम भोग सुखों से विमुख ऐसे सद्गुरु की सेवा करो। उन्होंने कहा - प्रभु! प्रतिबोध देने से आप ही हमारे गुरु है। हमारी भोगतृष्णा नष्ट हो गयी है। इसलिए अब आप धर्म की प्राप्ति कराएँ। यह देखकर कुमार आनंदित हुआ और कहा - तुम्हारा विवेक श्रेष्ठ है, इसलिए धर्म की प्राप्ति दुर्लभ नही है। जबतक हमें धर्मसामग्री की प्राप्ति न हो, तबतक हमें धर्म में उद्यमशील रहना चाहिए। उन्होंने भी कुमार का वचन स्वीकार किया। इस प्रकार सभी धर्मध्यान में तत्पर बनें। अपने पुत्र को दीक्षा ग्रहण करने की इच्छावाला जानकर, मोह से अश्रुयुक्त नयनवाले पिता ने कहा-वत्स! स्वच्छमतिवाले! हमें तो बूढापा आ गया है और तुम राज्यलक्ष्मी और पत्नियों के समागम से विमुख हो। इसलिए तुम विचार करो और यहाँ पर जो तुझे उचित लगता हो वह शीघ्र कहो। राज्य योग्य तेरे समान पुत्र होते हुए भी, हम आज भी राज्यलोलुपी बनकर बैठे हैं। यह लोक में लज्जाकारी विषय है। यह हमारा कुलाचार भी नहीं है। पुत्र के राज्य योग्य बन जाने पर, हमारे सभी पूर्वजों ने दीक्षा ग्रहण की थी। इसलिए तुम अपना राज्य स्वीकार करो। हमारी प्रार्थना वृथा न करो। पिता के वचन स्वीकारकर पृथ्वीचंद्र ने भी वैसे ही किया। पश्चात् महोत्सवपूर्वक पृथ्वीचंद्र का राज्य पर अभिषेक किया गया। उसके राज्य का संचालन देखकर सभी लोग आनंदित और विस्मित हुए। विस्तार कीर्त्तिवाले पृथ्वीचंद्र राजा के द्वारा पृथ्वी पर शासन करने पर, एक दिन सुधन नामक श्रेष्ठ व्यापारी उसकी सभा में आया। राजा के आगे भेंट रखी, पश्चात् अंजलि जोड़कर नमस्कार किया। सुधन का संमान कर राजा ने पूछाकोई आश्चर्य देखा हो तो कहो। उसने कहा-कुरुदेश में हस्तिपुर नामक नगर है। वहाँ पर रत्नसंचय श्रेष्ठी नगर का प्रधान है। उसकी सुमंगला पत्नी है। उन दोनों 128

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