________________ (2) कुंदफूल, चंद्र के समान उज्ज्वल कीर्ति से अत्यंत सुंदर पूर्णिमा के शोभायमान होने पर, पवित्र बुद्धि से प्रकट वाचस्पति के समान, विविध ग्रंथों के निबंध में सुंदर वाणीवाले, देदीप्यमान गुणसमूह को धारण करनेवाले, तेज रूपी लक्ष्मी से कांतिमान् ऐसे श्रीमद् गुणसमुद्रसूरि शोभते थे। उनके पट्ट रूपी उदयाचल के सिर रूपी शिखर पर सूर्य के कांति के समान तथा पुण्यलक्ष्मी से सुंदर ऐसे श्री पुण्यरत्नसूरीश्वर गुरु हैं। उनके शिष्य श्रीसत्य आदि राज ने 1535 वर्ष के शरदऋतु में विस्मयकारी ऐसे इस चरित्र की रचना की थी। इसलिए पंडितजनों के द्वारा यह चरित्र पठनीय है। (4) पूर्व श्रेष्ठ कवियों ने प्राकृतभाषा में इस चरित्र को लिखा था। अज्ञ जीवों के अवबोध के लिए मैंने अनुष्टुब आदि में रचना की है। (5) इस चरित्र का गूंथन कर मैंने जो सुकृत का उपार्जन किया हो तो उससे भवोभव मुझे बोधिलाभ की प्राप्ति हो। (6) यदि लक्षणा, अलंकार आदि किसी स्थान पर हीन हो तो, प्रसन्नता धारणकर पंडितजन उसे सुधारें। (7) अपनी विदूषता प्रकट करने के लिए, कवित्व की पंडितायी निरूपण करने के लिए, मैंने इस चरित्र की रचना नहीं की है। अल्पबुद्धिवाले मैंने मात्र कथा निवेदन करने के लिए ही इसे लिखा है। जिस प्रकार तिलों में काले तिल और घासों में तृण की संख्या गिनने में कोई समर्थ नहीं है, वैसे ही मेरी उक्तियों में भी दूषणों के समूह हैं। किंतु पंडितपुरुष उसके बारे में चिंतन न करें। (9) अथवा इस प्रार्थना से क्या प्रयोजन है? क्योंकि सज्जनपुरुष मेरे गुणों पर ही आदरवान् होंगे। भ्रमरों का समूह सदा आनंद से मनोहर फूल पर ही क्रीड़ा करते हैं। (10) इस चरित्र का समग्र श्लोक प्रमाण 1846 है। सं. 1535 वर्ष के माघ शुक्ल दशमी गुरुवार में श्री अहमदाबाद नगर में श्रीपूर्णिमापक्ष के विभूषण श्रीगुणसागरसूरि के पट्टालंकार पूज्य श्रीगुणसमुद्रसूरि, उनके पट्टाचल पर सूर्य के समान किरणवाले श्रीपुण्यरत्नसूरिवर अब विजयवंत हैं। उनके शिष्यरत्न सत्यराजगणि ने यह चरित्र लिखा है। क्रोड़ों चतुर पुरुषों के द्वारा वांचन किया जाता हुआ तथा अज्ञ लोगों को अवबोध करनेवाला यह चरित्र चिर समय तक जयवंत रहे। // इति श्रीपृथ्वीचंद्रगुणसागरचरितं समाप्तम् // 131