Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 130
________________ ने संयम ग्रहण करने का दृढ़ निश्चय किया और अपने स्थान पर देवसेनकुमार का राज्याभिषेक किया। कुसुमकेतु प्रमुख पाँचसो पुरुषों के साथ अस्त कामवाले ऐसे कुसुमायुध राजा ने दीक्षा ग्रहण की। ___एक दिन गुरु की आज्ञा से सत्त्ववान् ऐसे कुसुमायुध मुनि ने एकाकी विहार प्रतिमा का स्वीकार किया। उन्होंने किसी गाँव के शून्य गृह में कायोत्सर्ग ग्रहण किया। प्रदीप्त अग्नि के द्वारा जलाये जाने पर भी स्थिर मनवाले वे महामुनि शुभध्यान से लेशमात्र भी चलित नहीं हुए। समाधि मृत्यु से आयुष्य पूर्णकर सर्वार्थ विमान में देव हुए। इधर श्रीसुंदर आचार्य ने भी शुक्लध्यान रूपी अग्नि से शीघ्र ही कर्म इंधन को जलाकर केवलज्ञान प्राप्त किया और मोक्ष गए। कुसुमकेतु ने भी तीव्र संलेखना कर जगत् में श्रेष्ठ ऐसे अनुत्तर विमान में देव हुआ। वहाँ पर दोनों सुखपूर्वक तेंतीस सागरोपम प्रमाण आयुष्य भोगने लगे और दोनों एक अवतारी होने से एक भव के बाद मोक्ष जानेवाले थे। इस प्रकार पं.श्रीसत्यराजगणि द्वारा विरचित श्रीपृथ्वीचंद्रमहाराजर्षि चरित्र में श्रीकुसुमायुधराजर्षि का चरित्र रूपी दशम भव वर्णन संपूर्ण हुआ। एकादश भव __कोशल देश में अयोध्या नामक महानगरी है। वहाँ पर हरिसिंह राजा राज्य करता था और उसकी पदमावती रानी थी। सर्वार्थ विमान से कुसुमायुध देव च्यवकर पद्मावती की कुक्षि में अवतीर्ण हुआ। तब देवी ने स्वप्न में विमान देखा। समय पूर्ण हो जाने पर, शुभ दिन में उसने सुखपूर्वक पुत्र को जन्म दिया। राजा ने उसका पृथ्वीचंद्र नाम रखा। क्रम से सद्विद्याओं का अभ्यास कर, पवित्र आचारवाला पृथ्वीचंद्र तरुणियों के नयन आनंददायक यौवन अवस्था में आया। मनुष्यों में श्रेष्ठ ऐसे हरिसिंह राजा ने महोत्सवपूर्वक पृथ्वीचंद्र कुमार का सोलह कन्याओं के साथ विवाह किया। कुमार ने मामा जयदेव की ललितसुंदरी नामक पुत्री, कुमारी की अग्रगणनीय पत्नी बनी। पृथ्वीचंद्र भोगों से विमुख था तथा स्त्रियों पर लेशमात्र भी राग धारण नहीं करता था। वह सतत अपने चित्त में इस प्रकार विचार करता था-अहो! माता-पिता ने मुझे इस राग रूपी समुद्र में क्यों गिराया है? ये पत्नियाँ मुझे छोड़नेवाली नहीं हैं। इसलिए किसी भी उपाय से, इनको प्रतिबोधित कर में प्रव्रज्या ग्रहण करता हूँ और शीघ्र ही अपना हित करूँगा। इस प्रकार विचारकर कुमार ने अपना दिनकृत्य पूर्ण किया। उन सोलह प्रियाओं के साथ, कुमार गृह में गया और आसन पर बैठा। कन्याएँ भी रत्नपट्टक पर बैठी। प्रियाओं से घेरा कुमार ताराओं से चंद्र के समान शोभने लगा। उनके द्वारा कटाक्ष करने पर भी, शम रूपी बख्तर धारण करने से कुमार वींधा नही 125

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