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आदि के प्रत्ये स्तब्ध रहता है। विष्टा-मूत्र आदि से भरपूर अंगों का आलिंगन करता है और कराता है। मधुरवचन कहता है। स्त्रियों के पैरों पर गिरता है। विषम युद्ध करता है। वह मोह अपने अनुयायीवर्ग तथा भाईओं के साथ रम्य नाटक करता हुआ पिता को खुश करता है।
भव्यप्राणियों! शौर्यधारी और प्रमाद के वैरी उस मोह ने सभी प्राणियों को जीत लिया है। पुनः मोह ने इंद्रियों के द्वारा तीनों जगत् के जीव को अपने वश में कर लिया है। इसलिए पाँचों इंद्रियों के घात से, जय से अथवा वश करने से तुम अक्षय मोक्षसुख का अर्जन करो। युद्ध भी वही है, जिसमें किसी की भी मृत्यु न हो। संयम ही राग आदि शत्रुओं का विजेता है। बाह्य से रसहीन होने पर भी, तत्त्व से सुखकारी चारित्र पर ही प्रीति करनी चाहिए। इसलिए राजन्! तुम मोह रूपी आपदा को छोडकर चारित्र का आश्रय लो।
इस प्रकार केवलीभगवंत के मुख से धर्म सुनकर, मानतुंग राजा तथा राजशेखर राजा ने कहा - भगवन्! धर्मराजा के सुबोध दूत ने हम दोनों को सुदर्शन चूर्ण दिया है, जिससे यह संसारसुख साक्षात् अस्थिर दिखायी दे रहा है। मोहांध जीव असार और इंद्रजाल सदृश संसार को पहचान नही सकता है। किंतु हम दोनों उसे दुःखदायी जानकर अब चारित्र ग्रहण करना चाहतें हैं। तब केवलीभगवंत ने कहा - राजन्! चारित्र ग्रहण की इच्छा होने से, तुम दोनों का शीघ्र ही कल्याण होगा। किंतु इसे ग्रहण करने में विलंब मत करना क्योंकि इंद्रिय ग्राम दुर्जय है और पवन के समान मन चंचल है। पश्चात् दोनों राजाओं नें जयराजा से निवेदन किया - राजन्! हम दोनों को राज्य रूपी कैद से मुक्त करो, जिससे हम अपना वांछित प्राप्त कर सकें। तब जयराजा ने कहा - अब मेरा भी अभिग्रह पूर्ण हो गया है। मैं पहले भी राज्य को छोडना चाहता था। पुनः तुम दोनों का राज्य कैसे ग्रहण कर सकता हूँ? कुसुमायुध को तीनों राज्य का स्वामी बनाकर, तीनों राजाओं ने केवलीभगवंत के पास चारित्र ग्रहण किया। प्रियमती रानी भी दीक्षा अंगीकार करने के लिए उत्सुक हुयी, परंतु पति और मंत्री के वचन से बाल राजा का परिपालन करने लगी।
क्रम से कुसुमायुध राजा यौवन अवस्था में आया। कुसुमायुध राजा संपूर्ण पृथ्वी को एकछत्रित्व करता हुआ अर्हत् शासन को उन्नति के शिखरों पर पहुँचा दिया। कुसुमायुध राजा की देदीप्यमान गुण समूह से युक्त ऐसी राजशेखर राजा की पुत्री कुसुमावली, पट्टरानी हुयी। सरोवर में हंस के समान, जयसुंदर देव कुसुमावली की कुक्षि में पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुआ। तब कुसुमावली ने स्वप्न में अग्नि को देखा। समय पर उसने संपूर्ण लक्षणों से युक्त पुत्र को जन्म दिया। पिता ने हर्षपूर्वक उसका कुसुमकेतु नाम रखा। क्रम से बढ़ता हुआ कुसुमकेतु
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