Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 127
________________ सकेंगें। विवेकपर्वत पर चढने के लिए, चारित्र राजा ने सदागम को नियुक्त किया है। प्रशम आदि सुमित्र बनकर इनको सहायता प्रदान कर रहें हैं। अब वे विवेकपर्वत पर कुछ दिनों तक विश्रामकर, केवलज्ञान के द्वारा बताए रस्ते पर चलते हुए मुक्तिपुरी में पहुँचनेवाले हैं। उन्हें वापिस लाने की प्रतिज्ञाकर नाम, गोत्र आदि आपके चार भाई भी पीछे गएँ थे। किंतु वे निराश होकर वापिस घर लौट आएँ हैं। अब उन्होंने ही इस प्रकार नगर में शोर मचा रखा है। इसलिए देव! युद्ध से पर्याप्त हुआ। आपकी मासी ही पाटकों की चिंता कर रही है। उसके पाटकों में उपद्रव होने पर भी, हम क्या कर सकतें है? ___ मोह राजा ने कहा - यदि ऐसा हो तो भी तुम समस्त प्राणियों को अज्ञान की मदिरा पीलाओ, जिससे वे धर्म से अज्ञात बनकर, मुझ पर रागी हो। अविवेक मंत्री ने भी राजा की आज्ञा के अनुसार वचन का परिपालनकर राजा से निवेदन किया। फिर भी मोह राजा अश्रद्धा करता हुआ, अविवेक मंत्री के साथ नगर में पर्यटन करने निकला। उसने अज्ञान मदिरा के पान से भान रहित तथा धर्मअधर्म, कार्य-अकार्य, भक्ष्य-अभक्ष्य, गम्य-अगम्य विवेक रहित अखिल विश्व को देखा। परंतु पूर्वोक्त पाटकों में धर्म, धर्म इस प्रकार रटण कर रहे संन्यासियों को देखकर, राजा ने अपनी भृकुटी चढाकर अविवेक मंत्री से पूछा - क्या इनको अज्ञान रूपी मदिरा नहीं पीलायी है। अविवेक ने कहा - देव! यें भी मदिरा के परवश ही हैं। ये विवेक पर्वत पर नही गएँ है, शम आदि से नही मिलें हैं, चारित्र राजा की सेवा नही की है और नही समिति - गुप्ति से युक्त हैं। मोह राजा ने पूछा - अविवेक! तुम ये सब कैसे जानते हो? तब उसने कहा मिथ्यादर्शन की आज्ञा से, मैं भी एकदिन प्राणियों का अपहरण करने के लिए विवेकपर्वत के समीप गया था। परंतु उस पर चढ न सका। तब मैंने व्युद्ग्रह आदि सुभटों को वहाँ पर भेजा। उस स्थान पर विश्राम करते हुए मैंने सदागम के द्वारा बताएँ गएँ विधि के किन्हीं शब्दों का श्रवण किया था। उससे मैं थोडा-बहुत जानता हूँ। __ मोह ने कहा - सुंदर है, किंतु मासी के पाटक में रहें प्राणी मेरे भक्त होंगें अथवा नही? अविवेक ने कहा - विवेकपर्वत के नीचे सभी प्राणी आपके वशवर्ती है। उस पर चढे बहुत-से प्राणी भी आपका अनुसरण कर रहें हैं। यह सुनकर दर्प से युक्त मोह राजा, उस नगर में विविध क्रीडाएँ करने लगा। वह कभी वाजिंत्र बजाता है, स्वयं हंसता है और दूसरों को हंसाता है, पृथ्वी पर लोटता है, स्वयं डरता है और दूसरों को डराता है, गीत गाता है, नृत्य करता है, कलह करता है, क्रोध करता है, खुश होता है, शोक करता है, विलाप करता है, अन्य पात्रों पर मूछित रहता है। पुनः यह मोह पुत्र को पिता और पुत्री को माता कहता है। पिता को वैरी और माता को वैरिणी जानता है। पत्नी को स्वामिनी कहता है। देव, गुरु 122

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