Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 124
________________ धनञ्जयश्रेष्ठी के घर में सुखपूर्वक रहने लगी। वहाँ रहते हुए उसने पति वियोग आदि दुःख का जरा-भी अनुभव नहीं किया। वियोगी जन के लिए दुर्जन के समान ऐसे वर्षाऋतु का आगमन हुआ। पति का स्मरण कर, रो रही प्रियमती को जिनसुंदरी ने आश्वासन दिया। प्रियमती वहाँ पर पिता के घर के समान रहने लगी। उचित समय पर उसने पुत्र को जन्म दिया। विजय प्राप्त करने के समान, धनञ्जय ने जन्ममहोत्सव मनाया। रूप से कामदेव के समान उसका कुसुमायुध नाम रखा गया और क्रम से बढ़ते हुए तीन वर्षवाला शिशु हुआ। एक दिन श्रीपुर से चंपानगरी की ओर प्रयाण करने की इच्छावाले वासवदत्त सार्थवाह को आमंत्रण कर, धनञ्जय श्रेष्ठी ने कहा-भाई! मेरी इस पुत्री को शीघ्र ही चंपानगरी में पहुँचा दो। वासवदत्त ने उसकी बात स्वीकार कर ली। तब प्रियमती ने सार्थवाह के साथ अपनी नगरी की ओर प्रयाण किया। बीच में शिववर्द्धन नामक नगर आया। बालक को साथ में रखकर, प्रियमती आम्रवृक्ष के नीचे सो गयी। इधर शिववर्द्धन नगर के राजा सुंदर ने अपने भाई के साथ श्रेष्ठ ऐसे घोड़े, हाथी आदि राज्य समृद्धि छोड़कर दीक्षा ग्रहण की। राज्य के उचित पुत्र नहीं होने से, मंत्रियोंने पाँच दिव्यों का प्रयोग किया। पश्चात् मंत्रियों ने कुसुमायुध का राज्य पर अभिषेक किया। वासवदत्त सार्थवाह ने प्रियमती के चरित्र के बारे में मंत्रियों से कहा। कुसुमायुध को सुंदर राजा के मासी का पुत्र जानकर, मंत्रियों ने प्रमोद से महोत्सवपूर्वक उसका राज्याभिषेक किया। चारों ओर से सभी सामंत राजाओं ने आकर, आदर सहित कुसुमायुध को नमस्कार किया। इधर अवंतीपुर के राजा राजशेखर ने कुसुमायुध के राज्याभिषेक की बात सुनी। उस बालक के राज्य को ग्रहण करने की इच्छा से, राजा ने अपनी सेना के द्वारा नगर को घेर लिया। कहा भी गया है कि लोभी आत्माएँ कृत्याकृत्य, प्रशंसा-निंदा की गणना नही करती है। वासवदत्त सार्थवाह कितने ही दिनों के बाद चंपानगरी में पहुँचा। उसने जयराजा से प्रियमती तथा नये राजा कुसुमायुध के बारे में संपूर्ण वृत्तांत कह सुनाया। राजा ने आश्चर्यपूर्वक उसे सुना। सैन्य सहित राजा शिववर्द्धन नगर गया और प्रमोद से पुत्र तथा पत्नी से मिला। प्रियमती के पिता मानतुंगराजा भी क्रोड़ों सैनिकों के साथ वहाँ पर आया। राजा से उनका संपूर्ण वृत्तांत ज्ञापन किया गया। राजशेखर राजा भी उस व्यतिकर को जानकर विलक्ष हुआ। क्षमापना देने के लिए जयराजा के समीप गया और कहावृत्तांत नही जानते हुए, मैंने व्यर्थ ही आपके पुत्र के ऊपर युद्ध का आरंभ किया है। आप क्रोधरहित बनकर, मुझे क्षमा करें। इस प्रकार सभी राजाओं ने मिलकर परस्पर मैत्रीभाव का आश्रय लिया। और इंद्र के समान ऋद्धि से महोत्सव मनाया। 119

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