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आग्रह किया। पश्चात् अत्यंत प्रमोद से उन दोनों ने आहार वहोराया और उज्ज्वल बोधि-रत्न प्राप्त किया। इसीबीच यक्ष की पूजा करने के लिए, राजकन्याएँ आवृद्धि तथा वृद्धि भी उस उद्यान में आयी। साधु भगवंत को आहार वहोराते देखकर अहो! इन दोनों का सुंदर दान, अहो! इन दोनों का पुण्य का संचय, अहो! इन दोनों के जन्म की सफलता - इस प्रकार के विचारों से राजकन्याओं ने उनके दान की अनुमोदना की। ऐसे दो ने दान के द्वारा तथा दो ने अनुमोदना के द्वारा शुभानुबंधि पुण्य का उपार्जन किया और पाप का नाश किया। मुनिदान से दोनों विन्ध्य-शंबर संतुष्ट हुए।
पश्चात् दोनों काञ्चनपुर आये। विश्राम करने के लिए किसी उद्यान में रुक गये। इसीबीच राजा का पट्टहाथी उन्मादी बन गया। महावत को दूर फेंककर, संपूर्ण नगर में असमंजस की स्थिति पैदा करने लगा। चंद्रराजा ने नगर में घोषणा करायी कि - कोई प्रख्यात शूरवीर है, जो इस मत्त हाथी को शीघ्र ही अपने वश कर ले। घोषणा सुनकर विन्ध्य, हाथी के सम्मुख गया और उसकी तर्जना करने लगा। लंबे समय तक हाथी को खेदित कर, अपने वश कर लिया। बाद में हाथियों की शाला में ले गया। लोगों ने विन्ध्य की प्रशंसा की। चंद्रराजा ने उसे आह्वान कर कहा - मैं तेरे सत्त्व से खुश हूँ। इसलिए तुम स्वयं वर मांगो। विन्ध्य ने कहा - सभी वरों में श्रेष्ठ वर यही है कि मैंने आपके दर्शन प्राप्त कर लिए है। इससे ज्यादा और क्या माँगू? यदि मुझे इष्ट वर की प्राप्ति होगी, तो मैं आपके चरणों की सेवा करना चाहता हूँ। उस दान के अचिन्त्य माहात्म्य से, चंद्रराजा ने भी उसकी विज्ञप्ति स्वीकार कर ली। पश्चात् विन्ध्य और शंबर दोनों राजा की सेवा करने लगे।
कालक्रम से दोनों भाई समाधिपूर्वक आयुष्य पूर्णकर देवकुरुक्षेत्र में, तीन गाउ शरीर प्रमाण तथा तीन पल्योपम आयुष्य प्रमाणवालें युगलिक बने। दान अनुमोदन के पुण्य से, दोनों राजकन्याएँ उसी क्षेत्र में विन्ध्य-शंबर युगलिकों की प्रिया के रूप में उत्पन्न हुई। दोनों युगल वहाँ पर अद्भुत सुख का अनुभवकर संकट तथा पाप से वर्जित ऐसे सौधर्म देवलोक में गये। वहाँ से च्यवकर तुम दोनों पांडुपुर के महाबल राजा की विलासवती पत्नी की कुक्षि से पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए हो। पूर्वभव की दोनों प्रेयसियों में से एक सुंदर ऐसे पभखंडपुर में महसेन राजा की सुलक्ष्मणा पुत्री हुई है। और दूसरी विजयपुर में पभरथराज की लक्ष्मणा पुत्री हुई है, जिसने अपने रूप से देवांगनाओं को भी दासी बना दिया है।
चारण से श्रीबल का गुण कीर्तन सुनकर सुलक्ष्मणा उस पर अनुरागी बनी। वैसे ही शतबल के गुणों को सुनकर, लक्ष्मणा सरागी बनी। एकदिन महाबल की राजसभा में श्रीगुप्त नामक सिद्धपुत्र आया। विद्यासिद्धि के लिए श्रीगुप्त
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