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साधनों में, पापारंभों में क्षणमात्र के लिए भी रति करना तुझे योग्य नही है। मुनि के वचन सुनकर राजा प्रतिबोधित हुआ। बोधि प्राप्तकर वीरांगद राजा ने अपने मन को माया रहित किया और श्रावकधर्म का अंगीकार किया।
__उसी नगरी में जिनप्रिय नामक श्रावक निवास करता था। वह वीरांगद राजा की जिनपूजा, सामायिक, पौषध आदि धर्मकार्यों में सहायता करता था। इसलिए राजा उसे गुरु की बुद्धि से मानने लगा। वहीं पर मोहन नामक केवल नामधारी श्रावक रहता था। एकदिन श्रावकाचार के अनुसार जीवन व्यतीत करते जिनप्रिय से मिलकर, उसने कहा - मुझे उस साधार्मिक राजा के दर्शन कराओ, जिससे उनकी निश्रा पाकर मैं निश्चिंत बन जाऊँ। जिनप्रिय ने भी वैसा ही किया। राजा ने उसे पूजा आदि कार्यो में नियुक्त किया। राजमान्य होने के कारण, मोहन शेष लोगों में भी गौरवनीय बन गया क्योंकि महान् पुरुषों के द्वारा स्वीकृत किया गया कौन-सा पुरुष पृथ्वीतल पर पूजनीय नही होता है?
राज्य के योग्य ऐसे अपने वीरसेन पुत्र का स्मरण कर, राजा ने कामभोगों से निर्वेद पाया और श्रेष्ठ ऐसे चारित्र का परिणामवाला बना। राजा ने मोहन से कहा - धर्माचार्य की गवेषणा करो, जिससे मैं उनके चरणकमलों के समीप में दीक्षा ग्रहण कर सकूँ। राजा की बातें सुनकर, मोहन विचार करने लगा - इस राजा के बिना मेरी सुखपूर्वक आजीविका नही होगी। तब धूर्तों में अग्र ऐसे मोहन ने कहा - देव! इस समय यहाँ पर कोई ऐसे श्रेष्ठ गुरु दिखायी नहीं दे रहे है, जिनका जहाज के समान आश्रय लेकर भवसागर तीरा जा सके। श्रमणत्व दुष्कर है तथा पवन के समान मन चंचल है। इसलिए यह गृहस्थधर्म ही श्रेष्ठ है जिसका आप आचरण कर रहे है। संयम की विराधना करनेवालों का भवसमुद्र अनंत होता है। पलंग से नीचे गिरनेवाले मनुष्य को उतनी पीडा नही होती है जितनी पर्वत से नीचे गिरनेवाले को होती है। इसलिए भव से उद्विग्न होते हुए भी आप दीक्षा ग्रहण न करे। पौषध आदि धर्मकृत्य करते हुए यथाशक्ति गृहस्थधर्म का पालन करे।
राजा ने मोहन की उपेक्षा कर शीघ्र ही जिनप्रिय से पूछा। उसने राजा को संयम लेने के लिए प्रोत्साहित किया। इसीबीच उद्यान में जयकांत मुनि पधारे। राजा ने जिनप्रिय के साथ संयम ग्रहण किया। निरतिचार चारित्र का अनुपालन कर, आयुष्य क्षय हो जाने पर राजा महाशुक्र देवलोक में इंद्र का सामानिक देव हुआ। मोहन अब द्वेषी के समान मुनियों का छिद्रान्वेषी, दोषवादी तथा सतत प्रमादी, अज्ञानी और मानी बना रहा। आयुष्य पूर्ण कर वह विन्ध्यपर्वत पर बडा हाथी हुआ। भिलों ने उसे बांधकर मथुरा नरेश को सौंप दिया। पूर्वभव के अभ्यास से हाथी के भव में भी साधुओं का दुश्मन बना। एकदिन उद्यान में साधुओं को देखकर, क्रोध से उनके पीछे दौडा। गहरे खड्डे में गिरकर, आयुष्य
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