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नहीं कर सकते हैं। इसलिए भव्यप्राणियों! कुमार्ग छोडकर, शुद्ध सद्मार्ग पर प्रयाण करो, जिससे शीघ्र ही परम निर्वाणनगर प्राप्त करोगे।
राजन्! सर्व सावध व्यापार का त्याग, यही शुद्ध मार्ग का स्वरूप है। पुनः शत्रु-मित्र आदि पर समचित्त होना चाहिए। तीर्थनाथ केवलज्ञानी भगवंत ने यह ही मोक्षमार्ग का निवेदन किया है। इसलिए भाग्यशाली! सर्वथा तुम मोक्षमार्ग में उद्यमशील बनो। केवलीभगवंत की देशना सुनकर, राजा कर्मग्रंथि रहित बना
और भगवंत से विज्ञप्ति की - भगवन्! मैंने जान लिया है कि लौकिक देव रागद्वेष आदि से दूषित है। स्त्री, शस्त्र, गीत, नृत्य, रोष, तोष, कपट आदि से वे भी हमारे समान ही है। इसलिए वे प्राणियों के एकांत हितकर्ता कैसे हो सकते हैं? उनका प्ररूपित धर्म मोक्ष देने में कैसे समर्थ हो सकता है? इससे श्रीजिनेश्वर प्रणीत मार्ग ही हमारे लिए प्रमाण है। दुर्लभ निधि के समान उस धर्म को देखकर भी, जो अधमलोग इसे ग्रहण नही करतें है, वे संसार, दुःख, दारिद्र, उपद्रव आदि का कदापि पार नही पातें हैं। अथवा परचिंता से मुझे क्या प्रयोजन ह? मैं तो आपके समीप ही चारित्र ग्रहण करूँगा, इस प्रकार गुरु से विज्ञप्तिकर, राजा महल में गया। पश्चात् प्रशस्त मुहूर्त में कनकध्वज को राज्यपद तथा जयसुंदर को युवराजपद पर स्थापितकर, सुमंगलराजा ने सामंत, मंत्रियों के साथ बडे आडंबरपूर्वक गुरु के चरणमूल में सुंदर चारित्र ग्रहण किया।
राज्य का परिपालन करते हुए भी कनकध्वज राजा तथा जयसुंदर, पिता के द्वारा ग्रहण की गयी प्रव्रज्या का सदैव चित्त में स्मरण करते थे। बडे भोग भोगते हुए भी, विद्याधारी, किन्नरीयों के द्वारा गुण समूह गाये जाने पर भी, अर्ध भरतक्षेत्र के राजाओं के द्वारा सेवित होते हुए भी, वे दोनों हमेशा गुरुसंग की इच्छा करतें थे। गज, अश्व, रथ, रत्न आदि समूह से शोभित होने पर भी, शम-सागर में निमग्न उन दोनों को मोह-पिशाच लेशमात्र भी क्षोभित नही कर सका। एकदिन सुबह जब कनकध्वज राजा जागा, तब मंगलपाठक के इस अर्थ प्रमाणवाले श्लोक को सुना - स्वामी! यहाँ रहते हुए भी, तीनों जगत् में व्यापक आपके प्रताप को देखकर, सूर्य भी लज्जित होकर उदयपर्वत के अंदर बैठा है। यह सुनकर राजा अपने हृदय में सोचने लगा - पृथ्वी कितनी है? और मेरे वश में कितनी है? दिग्यात्रा का मनोरथ करते हुए, कनकध्वज राजा सोचने लगा - यदि दिग्यात्रा करूँगा, तो पूर्व महापुरुषों के द्वारा निर्मित जिनमंदिरों के दर्शन होंगें। तीर्थंकर भगवंत की जन्म, दीक्षा, केवल और निर्वाण भूमियों पर सुंदर मंदिरों को देखकर हर्षभर से वंदन करूँगा। जीर्ण प्रायः मंदिरों का उद्धार करूँगा तथा जिनमत के शत्रुओं का निग्रह करूँगा। तथा साधु, साध्वीओं का संमान करूँगा और दीन, दुःखियों का दान आदि देकर उद्धार करूँगा। राजा ने जयसुंदर से अपने अभिप्राय
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