Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 110
________________ चरणों के दर्शन का इच्छुक यह विद्यासिद्ध है और मेरे साथ यहाँ पर आया है। मास की अवधि पूर्ण हो जाने से, राजा ने अपने मित्र से कहा - आज महीना संपूर्ण हो गया है, किंतु अभीतक मेरा भाई आया नही है। क्या देव वचन भी विरुद्ध हो सकता है? अब मुझे राज्य तथा जीवन से कोई प्रयोजन नही है? इस प्रकार विषाद कर रहे रत्नसार राजा से गिरिसुंदर ने कहा - वह मैं ही आपका भाई हूँ जो देव के द्वारा कहा गया था। मैं भी अपने भाई से मिलने के लिए पृथ्वीतल पर विचरण कर रहा था। आपके दर्शन से मुझे संतोष प्राप्त हुआ है। अब मैं पर्यटन करने से मुक्त बन चुका हूँ। राजन्! आप भी मेरे समागम से इस विकल्प से मुक्त बने। समान क्रिया में प्रवृत्ति यह ही प्रीति का सार है। उसके वचन सुनकर, रत्नसार भी विचार करने लगा - गिरिसुंदर पर जिस प्रकार का प्रेम स्फूरायमान होता है, वैसा ही इस पर हो रहा है। क्या यह ही मेरा भाई तो नही है, जिसने रूप परावर्तन कर लिया हो? ऐसा निश्चय कर, रत्नसार ने कहा - भाई! अब भी मुझे क्यों ठग रहे हो? खुद के वास्तविक रूप को प्रकट करो। गिरिसुंदर ने भी हर्ष से वैसा ही किया। अन्यदिन पूर्व में कहे गये महसेन नामक मित्र का गिरिसुंदर-रत्नसार उन दोनों ने मिलकर, राज्य पर अभिषेक किया। उन दोनों ने कहा - तुम हमारे तीसरे भाई हो। इसलिए तुम राज्य संपदा भोगो। हम अपने माता-पिता से मिलकर खुद के विरह रूपी दावाग्नि को शांत करते हैं। ऐसा कहकर दोनों ने पुष्कल सेना के साथ प्रयाण किया। दोनों पांडुपुर पहुंचे। उनके आगमन के समाचार प्राप्त कर, अत्यंत हर्षपूर्वक शतबल आदि से युक्त श्रीबलराजा भी सामने आया। सभी ने आडंबरपूर्वक, ऊँचे तोरणों से शोभायमान नगर में प्रवेश किया। गिरिसुंदर तथा रत्नसार ने माता-पिता से खुद के आश्चर्यकारी चरित्र का वर्णन किया। श्रीबल राजा भी उनके अद्भुत भाग्य के बारे में सुनकर आनंदित हुआ। एकदिन पांडुपुर नगर के उद्यान में जयनंदमुनि पधारे। श्रीबल राजा ने अपने पूर्वभव के चरित्र के बारे में पूछा। मुनि ने कहा - प्रीतिपूर्वक साधु को अत्यंत आश्चर्यकारी ऐसे दान देने से, तुम चारों भी (श्रीबल, शतबल, सुलक्ष्मणा, लक्ष्मणा) अद्वितीय सुख के भोक्ता बने हो। इसी भरतक्षेत्र के प्रतिष्ठानपुर नगर में सुमेघ नामक कुलपुत्र निवास करता था। उसके विन्ध्य और शंबर नामक दो पुत्र थे। माता-पिता के स्वर्गवास के बाद, दोनों पुत्र शोक मग्न बने। पश्चात् दोनों ने कांचनपुर की ओर प्रस्थान किया। किसी स्थान के बीच में कंदोई की दूकान आयी। वहाँ से खाद्य सामग्री लेकर दोनों उद्यान में आये। तभी वहाँ पर मासखमण का पारणा करने के लिए एक साधु भगवंत पधारे। साधु भगवंत को देखकर, शुद्ध आहार से लाभ देने का 105

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