Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 109
________________ रूप धारण कर आया था। मेरी यह ही सत्य हकीकत है। मैं तेरे सत्त्व से खश हैं। इसलिए तुम्हारा जो भी इष्ट कार्य हो, वह कहो मैं उसे पूर्ण करूँगा। क्योंकि देवदर्शन अमोघ होता है। तब राजकुमार ने कहा - हे देव! हे पुण्यजनों के स्वामी! यदि ऐसा है तो आप यहाँ पर पुनः देश वसाएँ। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हो तो, मेरा यह कार्य पूर्ण करे क्योंकि आपके समान सज्जन पुरुष, किसी भी समय प्रार्थना का भंग नहीं करते हैं। यक्ष ने कहा - यदि तुम इस देश का प्रभुत्व स्वीकार करोगे, तो मैं यह कार्य करुंगा। इस स्थान पर रहते हुए, तुम्हें तुम्हारा भाई भी महीने के अंत में मिल जायेगा। राजकुमार ने भी उसकी बात मान ली। यक्ष आनंदित होते हुए वहाँ से अदृश्य हो गया। प्रातः चारों ओर से समस्त सामंतराजा गंधार नगर में आये। उन्होंने राजकुमार का राज्य पर अभिषेक किया और अब वह देवप्रसाद के नाम से प्रख्यात है। अपने पुण्य समूह से अर्जित राज्य के प्रभुत्व को देवप्रसाद राजा सतत पालन कर रहा है। देवप्रसाद राजा ने एकदिन मुझ से कहा – मित्र! हम दोनों ने मिलकर इस राज्य के प्रभुत्व को प्राप्त किया है। इसलिए हम दोनों समान रूप से इस समृद्धि का अनुभव करे अथवा तुम अकेले ही इसका परिपालन करो। मैंने कहा - मित्र! यक्ष ने महीने के अंत में भाई के साथ समागम होने का कहा है। इसलिए तुम यही रुको, मैं तुम्हारे भाई की खोज करता हूँ। उसका नाम क्या है? और वह किस हेतु से राज्य छोडकर बाहर निकला था? देवप्रसाद ने कहा - गिरिसुंदर नामक मेरा सुंदर भाई है और वह चोर को पकडने का आग्रहकर, नगर से निकला था किंतु अभी तक वापिस लौटा नहीं है। मैं उसी की खोज करते हुए इस गंधार नगर में आया था। मित्रों! मैं उसकी खोज करते हुए इस स्थान पर आया हूँ। इसलिए मैं आप सब मुसाफिरों से पूछ रहा हूँ कि ऐसे सुंदर लक्षणवाले पुरुष को आपने किसी स्थान पर देखा है। यदि देखा हो तो कहे, मैं वहाँ जाकर उससे मिलूँगा। इसकी बातें सुनकर गिरिसुंदरकुमार अपने हृदय में विचार करने लगा - इस पथिक के कथन अनुसार, यक्ष ने जिसको राज्य दिया है तथा जो गंधार नगर में विराजमान है, वह देवप्रसाद ही रत्नसार है। ऐसा निश्चय कर कुमार ने उस पथिक से कहा - अपने मित्र के लिए तुम कष्ट उठा रहे हो। देवप्रसाद से मिलने की मेरी प्रबल उत्कंठा है। मैं विनय आदि से मान संकुलित राजा के मन को आकर्षित कर लँगा जिससे वह अपने भाई को भूल जायेगा। वहाँ से दोनों ने साथ में प्रयाण किया और श्रेष्ठ गंधारपुर आये। रत्नसार राजा को देखकर कुमार खुश हुआ। गिरिसुंदर ने रूप परावर्तन कर लिया था, इसलिए राजा उसे पहचान न सका। राजा ने अपने मित्र से पूछा - यह महानुभाव कौन है? उसने कहा - आपके 104

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