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हुए गुण से तेजस्वी तथा सुप्रसिद्ध पूर्णचंद्र राजा भी पिता के समान प्रजा की रक्षा करता था। वह शत्रु समूह को झुकाता, न्याय मार्ग का अनुसरण करते हुए दुष्टों का दमन करता, दीन समूह का पालन करता तथा बंधुवर्ग पर उपकार करता था। पश्चात् रानी पुष्पसुंदरी देवी ने भी सम्यक्त्व युक्त अणुव्रत ग्रहण किये। जिनवाणी रूपी अमृत रस के सिंचन से वह सतत भव रूपी तृष्णा को जीतने लगी। वे दोनों पाँचों प्रकार के विषय सुखों का अनुभव करते हुए काल बीताने लगे। कालक्रम से उन्हें विनय से उज्ज्वल तथा प्रख्यात वीरोत्तर नामक पुत्र हुआ। यौवन अवस्था में आने पर, पूर्णचंद्रराजा ने उसे युवराज पद पर स्थापित किया। उसी दिन पिता के निर्वाण होने का समाचार प्राप्त हुआ। हर्ष और शोक धारण करते हुए, राजा इस प्रकार अपने मन में विचार करने लगा - मेरे पिता धन्य है, महानुभाव है, महामुनि तथा महासत्त्वशाली है, जिन्होंने सुख में लालन-पालन करने पर भी अत्यंत दुष्कर कार्य को साध लिया है। और मैं अल्प सत्त्वशाली, पाप में आसक्त, तप और क्रिया करने में असमर्थ, विषय रूपी भोग पदार्थ में आसक्त, वृद्धावस्था प्राप्त करने पर भी तत्त्वरहित हूँ। जो कि मैं जानता हूँ कि लक्ष्मी चंचल है, आयु नश्वर है, विषय-सुख दुःख का कारण है और स्वजनों का वियोग नियत है, तथापि मैं धर्म में प्रमाद कर रहा हूँ।
इस प्रकार चिंता कर रहे पति को देखकर, रानी ने कहा - देव! यहाँ पर शोक करने से क्या लाभ होगा? क्योंकि कार्य करने में उद्यत पुरुष, सत्त्वप्रधान सहायवाले होतें हैं। उससे राज्य चिंता छोड दे। जबतक गुणों के सिंधु सम सुरसुंदर सुगुरु यहाँ पर पदार्पण नहीं करते है, तब तक निःशंक होते हुए ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करे। तब राजा ने - सुंदर बात कही है इस प्रकार कहकर, राज्य पुत्र को सौंप दिया। श्रेष्ठ गुणवान् ऐसा पूर्णचंद्र राजा भी समस्त ममत्व को छोडकर, गुरुसंग की कांक्षावाला हुआ। सुंदर अंगवाली रानी भी उग्र तप से निर्मल, सुंदर धर्म का परिपालन करने लगी। अकस्मात् ही बीमार पडी और राजा की चिंता करने लगी। तब राजा भी उसकी पीडा से दुःखित हुआ और सोचने लगा कि वे गाँव, नगर और उद्यान धन्य है जहाँ पर मेरे गुरु निवास कर रहे है। अहो! भविष्य में क्या होगा? इसलिए जहाँ पर गुरु के पादकमल है, उनकी मैं उपासना करता हूँ। इस प्रकार राजा अपने हृदय में विचार करता हुआ, कषाय-कपट आदि से रहित बनकर आयु के क्षय हो जाने पर, समाधिपूर्वक काल कर आरण कल्प में देव बना। रानी भी आयुष्य पूर्णकर उसी कल्प में देव बनी। परस्पर प्रीत परायण वे दोनों एक ही सुंदर विमान में पूर्व पुण्य संचय के वश से अनेक सागरोपम पर्यंत अनुत्तर सुखों का अनुभव किया।
___ इस प्रकार पं.श्रीसत्यराजगणि द्वारा विरचित श्रीपृथ्वीचंद्रचरित्र में पूर्णचंद्र
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