Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 94
________________ कार्य शुरु करे। राजा की बातें सुनकर योगी क्रोधित होते हुए हथियार धारणकर खडा हुआ। तब राजा ने कहा - तुम व्रती हो इसलिए मैं तुझे नहीं मार रहा हूँ। यदि खुद की सुरक्षा चाहते हो तो मेरे नजरों के सामने से दूर हो जाओ। मेरे प्राणों की बलि देकर वेताल को वश करना चाहते हो? राजा के वचन सुनकर योगी अपने कार्य पर लज्जित हुआ और विचार करने लगा - मेरा आशय इसने कैसे जाना? यह कोई महासत्त्वशाली पुरुष दिखायी देता है। पश्चात् तलवार फेंककर पश्चात्ताप करते हुए, योगी ने अंजलि जोडकर राजा से कहा - महासत्त्वशाली! आपके वचनों से मेरा अज्ञान रूपी अंधकार अब नष्ट हो चुका है। मैंने इतने काल तक दुर्जन के संग से अधिक विडंबना प्राप्त की है। इसलिए आप मेरे पाप को क्षमा करे। आज से मैं परलोक के लिए हितकारी ऐसे धर्म के विषय में उद्यम करूँगा। प्रभु! आप मेरे धर्मगुरु है। मेरे पास शस्त्र के घाव को मिटानेवाला मणिरत्न है। आप उसे ग्रहण करे। राजा ने भी उसके उपरोध से मणिरत्न स्वीकार किया। इसीबीच प्रभात हो गया और वे दोनों भी अपने-अपने स्थान पर चले गये। सात दिनों के बाद, देवी की कुक्षि में सूर्य स्वप्न से सूचित पूर्णचंद्र का जीव पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुआ। देदीप्यमान निधि को धारण करनेवाली भूमि के समान, देवी ने गर्भ को धारण किया। सात महीने बीत जाने पर, देवी के हृदय में इस प्रकार स्पष्ट दोहद उत्पन्न हुआ कि - मैं हाथी पर बैठकर, समस्त मंत्रिमंडल के साथ नगर, गाँव, उद्यानों में विहार करूँ। राजा ने भी देवी का दोहद सुनकर, उसे सुंदर हाथी पर बिठाया और किसी उपवन में ले गया। वहाँ पर करुण स्वर से रो रही किसी स्त्री की आवाज सुनकर देवी ने कहा - स्वर लक्षण से मैं जान सकती हूँ कि यह कोई विद्याधर की स्त्री है। इसलिए नाथ! आप वहाँ जाकर उसके दुःख को दूर करे। राजा भी वहाँ गया और प्रहार से दुःखित किसी विद्याधर पुरुष को देखा। उसके समीप में ही उसकी विद्याधर पत्नी रो रही थी। राजा ने मणिरत्न के प्रक्षाल पानी से विद्याधर पुरुष को स्वस्थ बना दिया। विद्याधर भी मणिरत्न के प्रभाव से हृदय में आश्चर्यचकित हुआ। तब राजा ने पूछा - भद्र! तुझ पर यह भयंकर दुःख कैसे आगिरा? अथवा महापुरुषों के लिए विपदा भी संपदा के रूप में बन जाती है। इस जगत् में चंद्र की वृद्धि-हानि देखी जाती है न कि छोटे तारागण की। यहाँ पर कुछ रहस्य होना चाहिए। वह मैं आपके मुख से सुनने के लिए उत्सुक हूँ। विद्याधर पुरुष राजा के आगे इस प्रकार अपना वृत्तांत कहने लगा - वैताढ्यपर्वत के रत्नधन नामक श्रेष्ठ नगर में जयंत राजा राज्य कर रहा है। मैं उसी राजा का जयवेग पुत्र हूँ। मैंने बहुत-सी विद्याएँ सिद्ध की हुई है। उसी पर्वत के कुंभनगर में धर राजा राज्य कर रहा है। धर राजा ने मेरी बड़ी बहन की 89

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