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इस प्रकार पं.श्रीसत्यराजगणि द्वारा विरचित श्रीपृथ्वीचंद्रचरित्र में नरसिंहसूरसेन राजा का चरित्र वर्णन रूपी छट्ठा भव संपूर्ण हुआ।
सप्तम भव इसी भरतक्षेत्र के गज्जण नामक नगर में सुरपति राजा राज्य करता था। उसकी विनयप्रणया नामक पत्नी थी। सुरपति राजा मिथ्यादृष्टि था तथा ब्राह्मणों पर विशेष भक्तिमान् था। यथा राजा तथा प्रजा के सदृश, प्रजा भी ब्राह्मणों का विशेष सत्कार-सम्मान करती थी। कुछ समय के पश्चात् विनयप्रणया देवी की कुक्षि में वह सूरसेन देव अवतीर्ण हुआ। जिस प्रकार रोहण भूमि रत्न को तथा पूर्व दिशा सूर्य को जन्म देती है, वैसे ही देवी ने शुभ दिन में, कांति से सूर्य सदृश ऐसे पुत्र को जन्म दिया। क्रोडों जनताओं के साथ, राजा ने पुत्र जन्म-महोत्सव मनाया। उस पुत्र का पभोत्तर नाम रखा। धीरे-धीरे बढ़ते हुए, वह पावन यौवनअवस्था में आया। पभोत्तर ने शीघ्र ही संपूर्ण कलाओं का अभ्यास कर लिया।
इस ओर वैताढ्यपर्वत के सुभौमनगर में तारवेग राजा राज्य करता था। उसकी हेममाला पत्नी थी। उन दोनों के बहुत पुत्रियों के ऊपर, मुक्तावली देव ग्रैवेयक से च्यवकर पुत्र के रूप में उसकी कुक्षि में अवतीर्ण हुआ। समय होने पर, हेममाला ने महाकांतिवान् पुत्र को जन्म दिया। उसका हरिवेग नाम रखा। बाल वय को छोडकर, सभी कलाओं को ग्रहण करते हुए वह चतुर हरिवेग नारीजन के मन हरणकरनेवाले तारुण्य अवस्था में आया।
मथुरा नगरी में चंद्रध्वजराजा की चंद्रमति, सूरमति नामक दो सुंदर पत्नियाँ थी। उन दोनों को अनुक्रम से सुंदर रूप लावण्य समूह से विभूषित शशिलेखा, सूरलेखा नामक पुत्रियाँ थी। चंद्रध्वज राजा ने कन्या के अनुरुप वर की प्राप्ति के लिए स्वयंवर रचा। उसने सभी राजकुमारों को स्वयंवर में आने का आमंत्रण दिया। मर्यादित अनुयायीवर्ग से युक्त तथा देदीप्यमान वस्त्र, आभूषणों को धारणकर पभोत्तरकुमार ने भी मथुरा की ओर प्रयाण किया। कुमार मार्ग का उल्लंघन करते हुए, बीच में स्थित एक तापस आश्रम को देखा। तापस आश्रम के कुलपति को नमस्कारकर, उनके पाद समीप में बैठा। पश्चात् कुलपति ने एक सुंदर कन्या दिखाते हुए कुमार से कहा - वत्स! खुद के उचित इस कन्या को स्वीकार करो। कुमार ने पूछा - मुनि! ब्रह्मचर्य के धारक आपको पुत्री कैसे हो सकती है? कुलपति ने कहा - वत्स! स्वयं ही इसका परमार्थ सुनो -
___ उत्तरापथ में सुरभिपुर है। वहाँ पर वसंतराजा राज्य करता था और उसकी पुष्पमाला पत्नी थी। उन दोनों को पाँच पुत्रों के ऊपर गुणमाला पुत्री थी। इस कारण से गुणमाला अपने माता-पिता को पुत्र से भी अधिक प्रिय थी। उसके विरह की व्यथा से माता-पिता उसका विवाह नहीं कर रहे थे। एकदिन गुणमाला
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