Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 96
________________ अस्थिर हो गये हैं। प्रयत्नपूर्वक अच्छी प्रकार से लालन-पालन करने पर भी यह देह, संकट में कुमित्र के समान कृतघ्न सदृश ही दिखायी देता है। इस प्रकार अपने हृदय में विचार करते हुए, राजा को जाति-स्मरण ज्ञान हुआ। पूर्व भव के संयम का स्मरण कर, नरसिंह राजा प्रत्येकबुद्ध बने। पश्चात् मंत्रियों ने उनके पुत्र सूरसेन का राज्य पर अभिषेक किया। अपने शत्रुओं को वशकर, पितावत् प्रजा का संरक्षण करने लगा। पूर्वदिशा जिस प्रकार से सूर्य को जन्म देती है, उसी प्रकार मुक्तावली रानी ने अपनी देह कांति से भूतल को प्रकाशित करनेवाले चंद्रसेन नामक पुत्र को जन्मदिया। क्रम से बालक बढने लगा। संपूर्ण सत्कलाओं को ग्रहण कर, यौवन अवस्था में आया और प्राचीन पुण्य से भोग भोगने लगा। एकदिन शरदऋतु के समय में, बंधुजीव मंत्री ने राजा से विज्ञप्ति की - प्रभु! दूर देशांतर से घोडे के व्यापारी आये हुए हैं। उनके पास जो जातिवंत घोडे हैं, उनकी परीक्षा कर खरीद ले। मंत्री की बातें सुनकर, घोडे की परीक्षा के लिए राजा वन में ले गया। वहाँ पर मूर्तिमंत धर्म के समान किसी मुनि को देखा। उनके पाद-कमलों में नमस्कार कर, राजा ने उन मुनिभगवंत की देशना सुनी। हृदय में आनंदित होते हुए, राजा अपने महल लौट आया। ब्रह्म मुहूर्त में उठकर, राजा उन मुनिभगवंत की मन में प्रशंसा करने लगा। उतने में ही आकाश में दुंदुभिनाद सुनी। मुनिभगवंत की केवलज्ञान उत्पत्ति का निश्चयकर, हर्षित राजा मुक्तावली के साथ उन पूज्यपाद मुनि के पास गया। इसीबीच कोई दिव्य पुरुष चिर समय तक मुनिभगवंत के सामने नृत्यकर, पश्चात् नमस्कार तथा स्तुतिकर उनके सामने बैठा। राजा ने पूछा - भगवन्! यह श्रेष्ठ पुरुष कौन है? और अत्यंत भक्ति करते हुए आनंदित क्यों हो रहा है? तब मुनि ने कहा - सम्यक्त्व गुण से प्राणियों को ऐसी गुरु-भक्ति होती है। इसका दूसरा कारण भी है, वह सुनो - पभखंड नामक नगर में परस्पर प्रीति संपन्न सम्यग् तथा मिथ्यादृष्टि से युक्त ऐसे ईश्वर और धनेश्वर नामक दो व्यापारी रहते थे। दिवस में ही भोजन करते ईश्वर को देखकर मिथ्यादृष्टि से युक्त ऐसा धनेश्वर उससे कहने लगा - एक दिन में दो बार भोजन करना योग्य नही है। ईश्वर ने कहा - रात्रिभोजन दोष का कारण होता है। उससे मित्र! कदाग्रह छोडकर आत्महित करो। ईश्वर के बहुत बार कहने पर भी, उसने रात्रिभोजन नही छोड़ा। आयुष्य पूर्णकर धनेश्वर पाँच बार दुःख से संकुलित बगुला बना। उसके बाद दो-दो बार चामाचीडियाँ, उल्लू तथा शियाल हुआ। पश्चात् उज्जयिनी नगरी में देवगुप्त ब्राह्मण की नंदा पत्नी की कुक्षि में पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। जन्म से ही वह बालक रोग समूह से पीडित था। इसलिए लोगों ने उसका 'रोग' नाम रखा और धीरे-धीरे बढने लगा। इधर संवेग के ऊँचे 91

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