Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

View full book text
Previous | Next

Page 95
________________ याचना की थी। नैमित्तिक से इसके अल्प आयु के बारे में जानकर, मेरे पिता ने बहन का विवाह धर राजा के साथ न करते हुए अचलपुर के श्रेष्ठ विद्याधर ऐसे अनंगवेग के साथ किया। इस घटना से धर क्रोधित हुआ। मेरे पिता के साथ युद्ध करते हुए मारा गया। धर राजा का किन्नर नामक पुत्र था। वह अपने पिता का वैर याद रखते हुए मेरे पीछे घूमने लगा। आज पत्नी सहित मैं इस उद्यान में आया था। तब उस किन्नर ने मुझ पर निर्दयपूर्वक प्रहार किए। राजन्! यही मेरी वास्तविक हकीकत है। पश्चात् राजा ने जयवेग विद्याधर को महल में पधारने का निमंत्रण देकर उसे साथ ले गया। राजा ने बहुमानपूर्वक उन दोनों का भोजन, वस्त्रों से सत्कार किया। राजा की आज्ञा लेकर विद्याधर भी अपने स्थान पर चला गया। देवी का दोहद पूर्ण हो जाने से, राजा वापिस मिथिला नगरी लौट आया। संपूर्ण समय हो जाने पर, गुणमाला देवी ने विशेष तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। राजा को पुत्र-जन्म की बधाई दी गयी। हर्ष से राजा ने भी उसे बहुत धन दिया। देवी के द्वारा स्वप्न में सूर्य देखने से तथा सेना सहित विचरण करने का दोहद उत्पन्न होने से, राजा ने पुत्र का सूरसेन नाम रखा। सुंदर रूपवाला वह बालक भी स्त्रियों के द्वारा लालन-पालन किया जाता हुआ धीरे-धीरे बढ़ने लगा। जयवेग विद्याधर तथा उसकी पत्नी सूरसेनकुमार के रूप को देखकर अत्यंत विस्मित तथा आनंदित हुए। विद्याधर की पत्नी ने गुणमाला से कहा - यदि नैमित्तिक की वाणी से मुझे पुत्री होगी, तो उसका विवाह तुम्हारे पुत्र के साथ करने की विज्ञप्ति है। देवी ने कहा - इस विषय में मैं क्या कहूँ? तुम स्वयं ही यथायोग्य करना। मेरी चिंता मत करना। पुष्पसुंदरी देव भी स्वर्ग से च्यवकर जयवेग विद्याधर की रविकांता पत्नी की कुक्षि में, मानस सरोवर में हंसी के समान पुत्रीत्व के रूप में अवतीर्ण हुई। उसके प्रभाव से माता ने स्वप्न में मुक्तावली (मोतियों के हार) को देखा। स्वप्न के अनुसार उसका जन्म होने के बाद माता-पिता ने मुक्तावली नाम रखा। सूरसेनकुमार तथा मुक्तावली दोनों जब यौवन-अवस्था में आएँ, तब उनके माता-पिता ने आनंदपूर्वक विधिवत् उन दोनों का विवाह किया। सूरसेनकुमार सुखपूर्वक मुक्तावली के साथ समय व्यतीत करने लगा। एकदिन आभूषणों से भूषित नरसिंह राजा दर्पण में अपने रूप को देखकर मन में इस प्रकार सोचने लगा - अहो! अंजन की कांति सदृश जो मेरे मस्तक पर केश थे, वे अब वृद्धावस्था के कारण मुञ्ज घास के समान दिखायी दे रहे हैं। जो स्वर्ण दर्पण के समान भरावदार, पूर्ण गाल थे, वे अब अग्नि से तपाये गये कुतप के समान दिखायी दे रहे है। जो मुख में अंतर रहित तथा अणिदार दाँत थे, वे अब बहुत अंतरवाले तथा युद्ध में खराब योद्धा के समान 90

Loading...

Page Navigation
1 ... 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136