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समय, किसी नैमित्तिक ने राजा से कहा कि - जो इन दोनों कन्याओं से विवाह करेगा, वह दोनों श्रेणियों का राजा होगा। क्रम से वे दोनों कन्याएँ बढती हुई तारुण्य अवस्था में आयी। पिता कनककेतु ने उन दोनों का स्वयंवर महोत्सव प्रारंभ किया और समस्त विद्याधर राजाओं को आमंत्रित किया। कन्याओं ने हर्षपूर्वक हरिवेग के गले में वरमाला डाली। हरिवेग भी उनके साथ विवाहकर, अपनी नगरी में लौट आया। तब हरिवेग के पिता तारवेग ने निश्चय किया कि - हरिवेग ही दोनों श्रेणियों का राजा बनेगा। तारवेग सोचने लगा - पूर्वभव में हरिवेग ने ऐसा कौन-सा पुण्य किया होगा? यदि कोई ज्ञानी भगवंत पधारेंगे, तो मैं उनसे पूछूगा।
__कुछ समय पश्चात् वहाँ पर श्रीतेज नामक केवलीभगवंत पधारे। तारवेग राजा ने उन्हें नमस्कारकर, हरिवेग के बारे में पूछा। तब केवलीभगवंत ने कलावती -शंख भव से प्रारंभ कर हरिवेग भव पर्यंत का चरित्र कह सुनाया। संवेगवान् तारवेग राजा ने आनंदपूर्वक वह चरित्र सुना। तारवेग प्रतिबोधित हुआ। अपने पुत्र को राज्य देकर, कर्म को निर्मूल करने में उद्यत बने राजा ने केवलीभगवंत के पादमूल में दीक्षा ग्रहण की। हरिवेग को भी उस चरित्र के श्रवण से जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ और श्रावकधर्म का स्वीकार किया। सम्यग्दर्शन से पवित्र आत्मा वह हरिवेग बारह व्रत का पालन करने लगा। एकदिन अवसर प्राप्त कर, हरिवेग राजा ने केवलीभगवंत से पूछा - प्रभु! उस सूरसेन ने कहाँ पर जन्म लिया है? उसका क्या नाम है? क्या वह सुलभबोधि है अथवा दुर्लभबोधि है? आप कृपाकर उत्तर दे।
केवलीभगवंत ने कहा - वह गज्जणपुर राजा सुरपति का पभोत्तर नामक पुत्र हुआ है। अब तो वह सुलभबोधि है किंतु सामग्री के अभाव से उसने धर्म प्राप्त नही किया है। क्योंकि योग्य पुरुष भी सामग्री के अभाव से प्रतिक्रिया नही कर सकता है। विशुद्ध धर्मचरितवाले धर्माचार्य को प्राप्त नही करने से, धर्मरत्न योग्य प्राणी भी बोधि प्राप्त नही कर सकता है। तुम से ही अर्हद्धर्म को प्राप्तकर, पभोत्तरकुमार बोधि प्राप्त करेगा। यह सुनकर हरिवेग ने आनंद प्राप्त किया। क्रम से हरिवेग दोनों श्रेणियों का अधिपति बना।
एकदिन पभोत्तर को देखने की उत्कंठा से हरिवेग अकेला ही गज्जण नगर में आया। हृदय तथा गले में कोड़ी की मालाओं से अलंकृत, स्वर्ण घूघरी से गर्जना करती, देदीप्यमान रत्न के समूह से सुंदर दिखाई देती, स्वर्ण सांकल से बांधी गयी ऐसी एक बड़ी आकारवाली काजल सदृश बिल्ली की विकुर्वना कर, हरिवेग अपने साथ लेकर चौराहे पर आया। कौतुक से वहाँ पर लोग इकट्ठे हुए और उससे पूछने लगे - यह क्या है? इसे बेचने का क्या मूल्य है? हरिवेग ने कहा
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