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रंग से रंगे श्रद्धालु ईश्वर ने धर्मेश्वर गुरु के पास संयम स्वीकार किया। पश्चात वे ज्ञानी महात्मा विहार करते हुए अवंतीपुरी में पक्ष उपवास के पारणे के लिए देवगुप्त के घर गये। देवगुप्त ने अपने पुत्र के रोग-उपशम का उपाय पूछा।
___ तब वे मुनिभगवंत उचित प्रदेश में खडे रहकर उस ब्राह्मणोत्तम से कहा - जीवहिंसा, मृषावाद, चोरी, मैथुन और परिग्रह। इन महापापों के सेवन से मनुष्य रोग समूह से दुःखित होता है। परमेष्ठिमंत्र का स्मरण, सद्धर्म का आचरण तथा सम्यक्त्व का पालन करता हुआ मनुष्य शीघ्र ही नीरोगता प्राप्त करता है। इस प्रकार मुनिभगवंत की देशना सुनकर, अपने पुत्र सहित देवगुप्त ब्राह्मण अणुव्रतधारी श्रावक हुआ और धर्म के विषय में उद्यमशील बना। रोग से पीड़ित होने पर भी, 'रोग' ने संपूर्ण प्रतिक्रिया छोड़ दी और समभावपूर्वक वेदना सहन करता हुआ धर्म के विषय में दृढनिश्चयवाला हुआ।
एकदिन इंद्र ने 'रोग' के दृढ़ धर्मव्रत के विषय में अपनी सभा में प्रशंसा की। इंद्र की बातों पर श्रद्धा नही करते हुए दो देव वैद्य का रूप धारणकर रोग के पास आये। उन्होंने कहा - यदि तुम हमारे वचन अनुसार करोगे, तो हम तेरे जीवन के साधन ऐसे इस शरीर को रोग रहित कर देंगें। प्रातः शहद, संध्या के समय मदिरा तथा रात्रि में माखण सहित चावल का भोजन। पश्चात् विविध औषधों से जल, स्थल और खेचरों के मांस का भक्षण करना। ऐसे सात दिन पर्यंत भोजन करने से तेरे ये सर्व रोग क्षणमात्र में ही नष्ट हो जायेंगें। यह सुनकर रोग ने कहा - जो होनेवाला हो वह हो जाये किंतु प्राणों का नाश होने पर भी मैं धर्मध्वंस तथा व्रतभंग नहीं करूँगा। देवों ने उसे बहुत प्रकार से समझाया, किंतु रोग जरा-भी चलित नही हुआ। रोग के इस शुभ संकल्प को देखकर सभी आनंदित तथा विस्मित हुए। देव भी उसके सत्त्व को देखकर विस्मित हुए। पश्चात् देव उसे नीरोगीकर तथा स्तुतिकर अपने स्थान चले गये। उस दिन से वह लोगों में 'अरोग' नाम से प्रख्यात हुआ।
कालक्रम से आयुष्य पूर्णकर, यह अरोग सौधर्म में दिव्यविभूतिवाला श्रेष्ठ देव हुआ है। अपने पूर्वभव को जानकर, मुझे नमस्कार करने के लिए यहाँ पर आया है। मेरी केवलज्ञान की उत्पत्ति देखकर यह प्रमोद से नाचने लगा। इस प्रकार ईश्वरमुनि के मुख से उस देव का चरित्र सुनकर, कितने ही लोगों ने रात्रिभोजन का त्यागकर, श्रावक धर्म स्वीकारा तथा कितने ही लोगों ने संयम स्वीकार किया। सूरसेन राजा भी गड चरित्र सुनकर, वैराग्य प्राप्त किया और राज्य छोड़कर मुक्तावली के साथ संयम ग्रहण किया। चारित्र का सुंदर परिपालनकर, उन दोनों ने मास पर्यंत संलेखना की। आयुष्य पूर्णकर, वे दोनों ग्रैवेयक विमान में उत्तम देव बने।
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