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लगा-अहो ! ये मुनि उद्धत और अधम है। लज्जारहित और स्वच्छंदता से मेरी पत्नियों के साथ बातचीत कर रहे हैं। इसलिए अनीति की कांक्षावाले इस मुनि के आठों अंगों पर, मैं अपने हाथों से पाँच-पाँच बार लकडियों के प्रहार करूँगा । उतने में ही मैंने उनकी आवाज सुनी। ये कोई मंत्र कर रहे हैं, ऐसा सोचकर मैं विशेष सावचेत बना। वे इस प्रकार दयामय धर्म का स्वरूप कहने लगेसौभाग्यमारोग्यमयं वपुश्च रूपं परं वांछितभोगसम्पत्।
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स्वर्गापवर्गादिमहासुखानि भवन्त्यहिंसाव्रतपालनेन। पङ्गुत्वकुष्ठित्वकुणित्वदोषाः कुब्जत्वमन्धत्वमशर्मरोगाः । दौर्भाग्यदौर्गत्यविवर्णताश्च स्युर्जन्तुघातं सृजतामिहैव ॥ सौभाग्य, आरोग्यमय शरीर, श्रेष्ठ रूप, वांछित भोगों की प्राप्ति, स्वर्ग और मोक्ष आदि महासुख अहिंसाव्रत के पालन से मिलते हैं। और प्राणियों के घात से, इस लोक में पंगुता, कुष्ठिपन, लूंलापन, कूबड़ापन, अंधत्व, दुःखकारी रोग, दौर्भाग्य, दुर्गति और कुरूप मिलते हैं। प्राणिघात करने से मनुष्य, इहलोक - परलोक में शत्रुंजय - शूर नामक पिता और पुत्र के समान बहुत भयंकर दुःख सहन करते हैं। उनका कथानक इस प्रकार है
इसी विजय के जयपुर नगर में शत्रुंजय राजा राज्य करता था । उसके शूर और चंद्र नामक दो पुत्र थे। शूर को युवराज पद पर स्थापित करने पर, चंद्र खुद का अनादर मानता हुआ देशांतर चला गया। बाद में रत्नपुर नगर में आया। वहाँ पर मुनि भगवंत को नमस्कार कर, उनकी देशना सुनी। धर्म सुनकर, चंद्र निरपराधी प्राणियों के घात से निवृत्त हुआ। बाद में उसने जयसेन राजा का आश्रय लिया। एक दिन राजा ने उसे आज्ञा दी कि चंद्र ! तुम शंका छोड़कर, रात के समय सोये हुए उस हाथी को घेरकर मार डालना। चंद्र ने भी अपने नियम का स्मरण कर, उस कार्य में प्रवर्तित होने का निषेध किया। राजा ने उस पर अत्यंत विश्वास कर, चंद्र को खुद का अंगरक्षक बनाया। एक दिन शौर्य की वृत्ति से, चंद्र उस हाथी को बांधकर ले आया। उससे प्रख्यात बना चंद्र, मुनि द्वारा दिये गये नियम का विशेष परिपालन करने लगा।
इधर राज्य प्राप्ति की इच्छा से, युवराज शूर रात के समय अपने पिता को प्रहार से जर्जरित कर महल से निकलने लगा। रानी ने उसे देख लिया। कोलाहल शब्द होने पर, पहरेदार उसके पीछे दौड़े। और पकड़कर बांध लिया। प्रातः शत्रुंजय राजा के समक्ष ले गये। सभी लोगों ने उसे पहचान लिया। क्रोधित बने राजा ने शूर को देश छोड़ने का आदेश दिया। बाद में, मंत्रियों को शीघ्र भेजकर, चंद्रकुमार को बुलाया । प्रमाद रहित चंद्र भी पिता से मिलने की आतुरता से, जयसेन राजा से अनुज्ञा माँगकर शीघ्रगामी घोड़े के वाहन में बैठा और अपनी
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