Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 71
________________ रखा । रत्नावली देव भी स्वर्ग से च्यवकर, उसी नगरी में रानी के भाई विशालमंत्री के घर में पुत्री बनी। स्वप्न में पुष्पमाला देखने से, सद्गुणों रूपी रत्न की खाण के समान तथा देवकन्या सदृश उसका पुष्पसुंदरी नाम रखा। वह यौवन अवस्था में आई। एक दिन पिता के निर्देश से, वसंतऋतु के समय सखी से युक्त उद्यान देखने गयी। वहाँ लंबे समय तक वासंती लता के मंडप में क्रीड़ाकर, श्रम दूर करने के बाद आनंदपूर्वक वीणा बजाने लगी। इसी बीच मित्रों से घेरा पूर्णचंद्र भी कुतूहलता से उसी उद्यान में आ गया। पुष्पसुंदरी ने स्नेह से पूर्णचंद्र को देखा। पूर्वभव की प्रीति से, पूर्णचंद्र के रूप दर्शन से, यह पुष्पसुंदरी कामदेव के बाण सेवींधी गयी। पुष्पसुंदरी के भाव जानकर, उसकी सखी अशोकदत्ता ने पूर्णचंद्र से कहा- क्षण के लिए आप इस लतामंडप में पधारे। पूर्णचंद्र भी लतामंडप के अंदर आ गया। वहाँ उसने पुष्पसुंदरी को देखा । पुष्पसुंदरी ने भी अभ्युत्थान, आसन आदि से उसका सत्कार किया। तब पूर्णचंद्र सोचने लगा- अहो ! इसकी सुंदरता कुछ अद्वितीय ही है। अहो ! विधाता का यह निर्माण । अहो ! इसका अद्भुत लावण्य। पूर्वभव के तीव्र प्रेम संस्कार के कारण, कुतूहलता से उसे बारबार देखते हुए पूर्णचंद्र खुद को रोक न सका । पूर्णचंद्र ने कहा - चंद्रमुखी ! अब वीणा बजाओ । शर्म से पुष्पसुंदरी ने अपना मुख नीचे झुका दिया। तब अशोकदत्ता ने कहा- सौभाग्यशाली ! यह आपके सामने लज्जित हो रही है। निर्मलकुमार ! उससे आप यह मत सोच लेना कि यह अविनीत है। मैं वीणा बजाता हूँ, इस प्रकार पूर्णचंद्र के कहने पर, अशोकदत्ता ने भी उसे शीघ्र ही वीणा दी। पश्चात् वे दोनों प्रसंग पाकर आपस में वार्त्तालाप करने लगे। इतने में ही पुष्पसुंदरी की माता के समीप से वहाँ कन्या की सखी आयी और कहने लगी- अहो ! इस युवान् का संग अद्भुतकारी है। आप इधर इतने समय तक क्यों रुकी हुई हो ? आपके बिना आपकी माता जयादेवी, आज भोजन नहीं कर रही है। उससे शीघ्र महल चलो। यह बात सुनकर, नहीं चाहते हुए भी पुष्पसुंदरी उसके साथ चली गयी । तुच्छ पानी में मछली आनंदित नहीं होती है, वैसे ही पूर्णचंद्रमुखी पुष्पसुंदरी का चित्त भी पूर्णचंद्र का सतत स्मरण करता हुआ, कहीं पर भी नहीं लग रहा था । पुष्पसुंदरी के हृदय का आशय जानकर, उसकी सखियों ने कहा- बहन ! हम तुम्हारे मन के दुःख का कारण जानते हैं। उसे शांत करने का उपाय भी तुम सुनो। आज हमने आपके पिता को देवी के साथ इस प्रकार आलाप करते हुए सुना था कि, पुष्पसुंदरी के लिए पूर्णचंद्र वर कैसा होगा? उन दोनों का यह उचित योग मणि और सुवर्ण के समान सुंदर दिखायी देता है । इस प्रकार परस्पर विचार कर, 66

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