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और देवतागण भी वश होतें हैं। उससे विपरीत शीलरहित प्राणियों को इहलोक में भी कान, होंठ, नाक आदि अवयवों का छेदन, धन-बंधु आदि का वियोग तथा अपयश भी होता है। सत्शील के पालन के, शीलसुंदरी ने इहलोक में भी सुख प्राप्त किया था और नहीं पालन करने से चार कुशील और विलासी पुरुष संसारअटवी में गिर पडे। उनकी कथा इस प्रकार है -
विदेह के इसी विजय में, विजयवर्द्धन नगर में वसुपाल श्रेष्ठी निवास करता था। उसकी वसुमाला पत्नी थी। उन दोनों को रूप, लावण्य, शील आदि गुण रूपी अलंकारों से विभूषित तथा अरिहंत की परम उपासिका सुंदरी नामक कन्या थी। यौवन अवस्था प्राप्त करने पर, बहुत से तरुण पुरुषों ने विवाह के लिए उसके पिता से याचना की। किंतु सुंदरी के पिता ने उसी नगर के निवासी सुभद्र नामक श्रावक से उसका विवाह किया। एकदिन दो व्यापारी के पुत्र तथा दो भट्ट (पंडित/चारण) के पुत्र, ऐसे इन चारों ने सुंदरी के रूप माहात्म्य के बारे में सुना। वे चारों भी उसी पर दत्तचित्तवाले बनें और उसके संग की इच्छा से कला, क्रीडा के वश विविध उपाय करने लगे। वे अद्भुत श्रृंगारकर उसके मार्ग पर खडे हो जाते, विचित्र अन्योक्ति कहते और सुंदर गीत-गान करते थे। इस प्रकार विविध चेष्टाओं से, उनका आशय जानते हुए भी शील को लीलामात्र से धारण करनेवाली सुंदरी ने उनको आँखमात्र से भी नही देखा। अपने श्रम को विफल जाते देखकर, किसी तापसी को धन से वशकर सुंदरी के घर भेजा। वह तापसी सुंदरी के घर में बहुत बार आने-जाने लगी, फिर भी सम्यग्दृष्टि सुंदरी ने दृष्टि से भी ध्यान नही दिया।
एकदिन उस निर्लज्ज तापसी ने सुंदरी से कहा - सखी! तुम खुद चतुर हो, फिर भी मेरा वचन सुनो। जिनेश्वरों ने सर्वप्राणियों पर दया करना ही धर्म कहा है। इसलिए सुंदरी! तुम भी प्रयत्नपूर्वक उन बिचारों पर दया करो। यह सुनकर सुंदरी ने कहा - सखी! यह भयंकर महापाप है क्योंकि व्रत स्वीकार कर, जो दूसरों को लज्जा रहित बनकर पापबुद्धि देतें हैं, वे खुद के तथा दूसरे की आत्मा को भयंकर दुर्गति में डालतें हैं। सुंदरी के दृढ निश्चय को जानकर, वह तापसी उन चारों से कहने लगी - यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो उसका आग्रह छोड दो। कदाग्रह रूपी ग्रह से ग्रसित वे चारों भी उसकी बातों को नहीं स्वीकारते हुए किसी मंत्रवेदी के पास गये। खराब बुद्धि के निधि समान वह मंत्रसिद्ध, कृष्णचतुर्दशी की रात में उनको श्मशान ले गया। वहाँ पर मंडल का आलेखनकर, एकाग्र मन से विधिवत् मंत्रदेवता का आराधन करने लगा। चतुर्दशी होने से सुदरी ने भी पौषध ग्रहण किया और रात्रि की विधि संपूर्णकर सो गयी थी। मंत्र के अचिंत्य प्रभाव से, मंत्रसिद्ध ने संथारा पर सोई हुई उस सुंदरी को
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