Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 74
________________ नगरी लौट गया। पश्चात् शत्रुजय राजा ने चंद्र को राज्य पर स्थापित किया। शस्त्रघात से पीड़ित शत्रुजय राजा, शूर पर मात्सर्य धारण करते हुए आयुष्य पूर्णकर किसी जंगल में शेर बना। शूर भी घूमता हुआ उसी जंगल में आया और शेर ने उसे मार डाला। शूर मरकर उसी वन में भील हुआ। शिकार करने के लिए इधर-उधर घूम रहे भील को देखकर, शेर ने उसे मार डाला। दूसरे भीलों ने उस शेर पर बाण से प्रहार किये, जिससे वह मर गया। पश्चात् वे दोनों उसी वन में सूवर बने। वैर के कारण परस्पर युद्ध करते उन दोनों सूवर को भीलों ने मार डाला। मरकर वे दोनों उसी वन में मृग के बालक के रूप में जन्मे। वहाँ पर भी परस्पर पुद्ध कर रहे उन दोनों को भीलों ने मार डाला। पश्चात् वे दोनों हाथी बने। परस्पर युद्ध कर रहे उन दोनों हाथी को पकड़कर, भाग्य के योग से भीलों ने उन दोनों को चंद्रराजा के पास ले गये। वहाँ पर भी वे वैसे ही युद्ध करते थे। महावत उन्हें बार-बार रोकने का प्रयत्न करते थे। एक दिन वहाँ पर ज्ञानी गुरु पधारे। चंद्रराजा ने वंदनकर उनसे पूछा-प्रभु! इन दोनों हाथियों के बीच सतत वैर क्यों है? मुनि भगवंत ने भी उन दोनों के संपूर्ण भव सुनाये। यह जानकर चंद्रराजा धर्मकार्य में प्रमाद रहित बना और संवेग पाकर गुरु के पास दीक्षा ग्रहण की। आयुष्य पूर्णकर स्वर्ग में देव हुआ। हाथी भी मात्सर्य से आपस में युद्ध करते हुए मर गये और रत्नप्रभा नरकभूमि में नारक हुए। इस प्रकार प्राणिघात के विषय में निवृत्त तथा अनिवृत्त बने व्यक्तियों के विषय में यह दृष्टांत जानकर, सुख-दुःख तथा गुण-अवगुण का मूल समझकर, भव्यप्राणी निरपराधी प्राणी समूह के घात से होनेवाले इस पाप से विराम पावें। इस प्रकार प्रथम अणुव्रत के विषय में शत्रुजय-शूर-चंद्र कथा संपूर्ण हुई। मुनिराज के मुख से कही गई इस कथा को सुनकर, विनय से नम्र बनी मेरी पत्नियों ने प्रथम अणुव्रत का स्वीकार किया और प्राणी वध से विराम पाई। यह कथा सुनकर मैं भी अपने हृदय में सोचने लगा - यह मेरे हित में ही हैं कि ये प्राणी घात से विरत हुई है। क्योंकि क्रोधित होने पर भी, ये मेरा कुछ भी बिगाडनेवाली नहीं है। इसलिए अब मैं, मुनिराज पर चार बार ही लकडी से प्रहार करुंगा। इसीबीच अमृत के समान मधुरवाणी में मुनिभगवंत कुछ कहने लगे। इनके वाक्य सुनने की कुतूहलता से मैं भी बाहर ही खडा था। वे इस प्रकार कहने लगे - यहाँ पर योग्य पुरुषों के द्वारा प्रमाण युक्त सत्य वचन ही बोलना चाहिए। क्योंकि सत्यवादी विश्वास पात्र और सभी लागों को प्रिय होता है। सत्येनाग्निर्भवेच्छीतो मार्ग दत्तेऽम्बु सत्यतः। नासिश्छिनत्ति सत्येन सत्याद् रज्जूयते फणी। 69

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