Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 81
________________ चंद्राभा नगरी में, पुरंदर श्रेष्ठी की सती पत्नी की कुक्षि से पुत्र रूप में जन्म लिया। उसका नाम सिद्धदत्त रखा गया। वह लोक में चतुर और कलावान् के रूप में प्रसिद्ध हुआ। इस ओर वह वसुदत्त वैसे ही कूट वजन आदि से व्यापार करता था। अनुक्रम से आयुष्य पूर्णकर भाग्य के योग से बंगाल में कपिल नामक ब्राह्मण का पुत्र हुआ। उसके दुर्भाग्य वशात् माता-पिता की मृत्यु हो गयी। पिता का धन भी धीरे-धीरे क्षय होता गया। उसके स्वजनो ने भी किसी दौर्भाग्य पिता की रूपादि से दूषित कन्या के साथ विवाह किया। कंगालता के कारण पत्नी के द्वारा अपमानित करने पर, धन कमाने के लिए वह देशांतर गया। अनीति आदि कार्यों से लक्ष्मी कमाने के लिए वह क्लेश करने लगा। तब किसी कार्पटिक ने कहा - यदि धन चाहते हो तो चन्द्राभापुरि जाकर आशाकरणी देवी की आराधना करो, जिससे शीघ्र ही इष्ट की प्राप्ति होगी। यह सुनकर कपिल भी वहाँ पहुँच गया और दर्भ का संथारा बिछाकर, पवित्र बना वह एकाग्र मन से देवी के आगे बैठ गया। इस प्रकार ध्यान करते हुए कपिल के दो दिन बीत गये। तीसरे दिन की रात्रि के समय, देवी ने कहा - तुम ऐसे क्यों बैठे हो? खडे हो जाओ। उसने कहा - मैं आपके पास धन की याचना करता हूँ। देवी ने कहा - तुझे क्या दिया जा सकता है? पुनः ब्राह्मण ने कहा - देवी! यदि आप मेरी इच्छा पूर्ण नही करेगी तो मैं आपके ही इस भवन में प्राणों को छोड़ दूंगा। देवी उसकी दृढता देखकर कहने लगी - यह एक पुस्तक है। इसे बेचने से पाँच सो मुद्राएँ मिलेगी। कपिल ने भी वैसे ही किया। उस पुस्तक के विक्रय के लिए, वह घूमता हुआ सिद्धदत्त के समीप आया। उत्सुक कपिल ने उसे वह पुस्तक दिखायी। उसके द्वारा मूल्य कहे जाने पर, सिद्धदत्त कुतूहलता से पुस्तक खोलकर पढने लगा। उसने छंद के इस पाद को पहले देखा कि - पाप्तव्यमर्थं लभते मनुष्यः! मनुष्य अपने भाग्याधीन धन ही प्राप्त कर सकता है। अपने हृदय में उस छंद का अर्थ विचार किया। पश्चात् पाँच सो मुद्राएँ देकर कपिल से वह पुस्तक ग्रहण कर ली। कपिल भी धन लेकर अपने नगर की ओर प्रयाण किया। किंतु बीच में ही भीलों ने उसे पकड़ लिया और चिर समय तक बंदी बनाये रखा। पश्चात् त्रास देकर छोड़ किया। कपिल भी दुःखपूर्वक अपने नगर में वापिस लौट आया। ___ इधर पाँच सो मुद्राओं का व्यय करने से, पिता सिद्धदत्त पर क्रोधित हुए और पुस्तक सहित उसे घर से बाहर निकाल दिया। सिद्ध भी रात के समय बाहर निकला। नगर के दरवाजे बंद हो जाने से, वह जीर्ण देवकुल में गया। वहाँ लेटकर, उस पद्य के बारे में ही अपने हृदय में विचार करने लगा। उसी नगरी में परस्पर प्रेमशील ऐसी राजा, मंत्री, श्रेष्ठी और पुरोहित की कन्याएँ रहती थी। वे एकदिन 76

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