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इस ओर सुमित्र भी नगर में पर्यटन करने लगा। तब रतिसेना नामक वेश्या की पुत्री ने प्रेमपूर्वक सुमित्र को देखा। अपनी पुत्री का अभिप्राय जानकर, वृद्ध वेश्या ने संमानपूर्वक उसे समीप बुलाया। बाह्य आकृति से सुमित्र को धनवान् जानकर, वृद्धाने उसका सत्कार किया। वेश्या केवल धनिकों पर रागी होती है, किंतु गुणिजनों के गुण पर नही। जैसे मक्खियाँ दुर्गंधि विष्ठा पर बैठती है, किंतु चंदन पर नही। वे धन के लिए चंडाल तथा कुष्ठि का भी संग कर लेती है। इस प्रकार जानते हुए भी सुमित्र, रतिसेना के प्रेमपाश में फंस गया और थोड़ा समय बीताने के लिए, वही पर रहने लगा। वृद्धवेश्या अत्यंत खुश हुयी, किंतु धन के संदेह से उसने सुमित्र के पास आभूषण आदि माँगें। तब सुमित्र ने यह थोडे धन से खुश नही होगी ऐसा सोचकर एकांत में चिंतामणि की पूजाकर याचना की। चिंतामणि के प्रभाव से आभूषण आदि प्राप्तकर शीघ्र ही वृद्धा को दे दिए। इस प्रकार वृद्धा बार-बार माँगने लगी। सुमित्र के द्वारा भी अधिक आभूषण आदि देने पर, वृद्धा ने सोचा कि यह दान-लीला चिंतामणि के बिना संभव नही है। इसलिए उस चिंतामणि को ही चुरा लेती हूँ। एकदिन जब सुमित्र स्नान करने गया तब मौका पाकर वृद्धा ने परिधान वस्त्र के गांठ से चिंतामणि लेकर निकल गयी। पुनः वृद्धा ने धन की माँग की। चिंतामणि को नही देखकर, सुमित्र ने उसके बारे में वेश्या वर्ग से पूछा।
कपट कला में प्रवीण चतुर वृद्धा विलाप करते हुए कहने लगी - तुझे दान नही देना है तो मत दो, किंतु मुझे कलंकित तो न करो। सुमित ने जान लिया कि - इसीने मेरा रत्न चुराया है, इसमें संशय की बात नही है। अब मैं यहाँ पर कैसे रहँ? यहाँ रुकना उचित नही है। राजा से फरियाद करने में लज्जा का अनुभव करता सुमित्र वहाँ से देशांतर चला गया। मार्ग में जाते हुए, वह सोचने लगा - लोभी वेश्या स्त्रियों के अज्ञान को धिक्कार हो। मुंहमाँगा धन देने पर भी, वृद्धा की धन की तृष्णा शांत नही हुयी। उस पापिनी ने विश्वास द्रोहकर, केवल मुझे ही नही ठगा है, किंतु तत्त्व से अज्ञान बनकर स्वयं की आत्मा को भी ठगा है। इस मणि के विधि, मंत्र से अज्ञान होने से, पत्थर के समान उस मणि से यह वृद्धा कवडीमात्र भी प्राप्त नही कर सकेगी। मैं किस प्रकार अपना सामर्थ्य बताकर, उससे वापिस मणि ग्रहण कर सकता हूँ? इस प्रकार आकुलित होते हुए मार्ग में आगे बढ़ने लगा।
क्रम से सुंदर महल, बहुत उद्यानों से युक्त एक विशाल नगर में पहुँचा। आश्चर्यसहित सुमित्र ने नगर के अंदर प्रवेश किया। समस्त नगर का अवलोकन करते हुए, राजमहल के समीप में आया। मनुष्य रहित उस महल को देखता हुआ धीरे-धीरे साँतवी मंजिल पर चढ़ा। वहाँ पर शरीर पर कुंकुम लेप से युक्त,
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