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पापिनी भी मेरे पति के द्वारा अर्पित धन से तृप्त नही हुयी है। कदाच अग्नि मुझे छू सकता है, किंतु सुमित्र सिवाय कामदेव सदृश पुरुष भी मेरा स्पर्श नही कर सकता है। पुत्री के दृढ निश्चय को देखकर, वृद्धा ने शपथ तथा कपट से भोजन कराकर, कुछ समय बीताया।
एकदिन सुंदर श्रृंगार से सजे तथा मार्ग पर खडे सुमित्र को देखकर, वृद्धा ने अति आग्रहपूर्वक अपने घर में ले गयी। कपटपूर्वक उसने विज्ञप्ति की - हे सौभाग्यशाली! मेरी पुत्री निर्दोष होते हुए भी तुम उसे छोडकर चले गए थे। दुस्सह ऐसे तेरे विरह से, उसके प्राण भी संकट में है। ऐसा कोई चैत्य, घर, मार्ग, दूकान, आंगण, वन नही है, जहाँ पर तेरी शोध न की गयी हो। पत्थर के समान कठोर हृदयवाले तुम, हम निरपराधियों को छोडकर कहाँ पर चले गए थे? वृद्धा के वचन सुनकर, सुमित्र मन में सोचने लगा - अहो! यह पापिनी अब भी पाप का इकरार नही कर रही है। इसने माया से चिंतामणि ग्रहण किया था, इसलिए मैं भी माया से ही ग्रहण करुंगा। क्योंकि शठं प्रति शाठ्यं कुर्यात्। ऐसा विचारकर सुमित्र ने कहा - कार्यवशात् मैं दूर देशांतर चला गया था। व्यापार की बहुलता से यहाँ पर आ न सका। किंतु खाते-पीते, दिन-रात कभी भी तुझ हितेच्छु को भूला नही हूँ। यदि तुझे विश्वास न हो तो, मैं तेरी शपथ ग्रहण करता हूँ। सुमित्र का कहा सुनकर, वृद्धा ने सोचा - यह मुझे झूठा नही मान रहा है, इसलिए उपयोगी बनेगा। किंतु किसी भी प्रकार से, मैं इसे चिंतामणि रत्न देनेवाली नही हूँ। ऐसा विचारकर वृद्धवेश्या हर्षित हुयी।
पश्चात् सुमित्र ने रतिसेना से कहा - प्रिये! मैं तुझे थोडा आश्चर्य दिखाता हूँ। ऐसा कहकर, अंजन के प्रयोग से उसे ऊंटनी बनाकर अपने स्थान पर चला गया। भोजन के समय वृद्धा ने रतिसेना को बुलाया, किंतु उसके नही आने पर, वृद्धा आकुलित हुयी। कमरे में देखने पर, रतिसेना को नही देखते हुए, वृद्धा सोचने लगी - ऊंटनी रूप को धारण करनेवाली इस राक्षसी ने ही मेरी पुत्री का भक्षण किया है। इस प्रकार दुःख से वह चिल्लाने लगी। उसकी चिल्लाहट सुनकर सभी लोग वहाँ पर एकत्रित हुए। लोगों ने वृद्धा से पूछा - रतिसेना के साथ पहले कौन था? उसने कहा - अज्ञात नामवाला कोई विदेशी पुरुष था। लोगों ने कहा - उसी पुरुष ने तेरी पुत्री के अपराध से रुष्ट होकर ऊंटनी बनायी है, ऐसा हमें प्रतीत हो रहा है। वह यहाँ से भागकर कही दूर चला न जाए, इससे पहले ही तुम राजा के पास जाकर फरियाद करो।
वेश्या ने जाकर वीरांगद राजा से फरियाद की। क्या वह ही मेरा मित्र सुमित्र तो नही है? ऐसा सोचकर राजा ने पूछा - तुम पहलीबार उससे कब मिली थी? वेश्या ने कहा - जिस दिन आपका राज्याभिषेक हुआ था, उसी दिन वह
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