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हमारे घर पर आया था। राजा ने आरक्षकों को बुलाकर कहा - संमानसहित उस पुरुष को मेरे समीप ले आओ। वेश्या की दासी के द्वारा दिखाए गए पुरुष को, आरक्षकोंनें शांतिपूर्वक राजा के पास लेकर गए। राजा ने उसे पहचानकर, अपने सिंहासन से उठकर प्रेमपूर्वक भेंट पडा । और धूर्त राजा के सज्जन मित्र का स्वागत है ऐसा उपहास वचन बोला। राजा ने कुशल-क्षेम पूछा। नतमस्तक होकर सुमित्र ने कहा - देव की कृपा से कुशल हूँ। राजा के द्वारा वेश्या की पुत्री को ऊंटनी बनाने का कारण पूछने पर, सुमित्र ने कहा यह सुखपूर्वक वृक्ष के पल्लवों को चर सके, इस लोभी वृद्धा का भार वहन कर सके तथा भोजन का भी व्यय न हो, इसलिए इसे ऊंटनी बनाया है। तब वृद्धा ने कहा रे इंद्रजालिक! फालतू की बातें मत करो। मैंने तेरी कुशलता जान ली है। वापिस मेरी पुत्री को ठीक करो। सुमित्र ने कहा जब तुझे भी विशाल उदरवाली गधी बनाकर विष्टा चराऊँगा और नगर को पवित्र कराऊँगा, तब मेरी कुशलता को जानोगी। अन्यथा मुझे मणि वापिस लौटा दो।
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सुमित्र का वचन सुनकर राजा ने मणि के बारे में पूछा। उसने कहा प्रभु ! जिस मणि के प्रभाव से तब अरण्य में भी हम दोनों को सुखसाधन की सामग्री प्राप्त हुयी थी, उस मणि को इस वृद्धा ने चुरा लिया है। वृद्धा भी भयभीत होकर सुमित्र के चरणों में गिर पडी । शरणागत की रक्षा में माहिर सुमित्र ने राजा से उसे अभयदान दिलाया। पश्चात् वृद्धा ने सुमित्र के हाथ में मणि सौंप दी। सुमित्र ने रतिसेना को पुनः स्वस्थ बना दिया। माता का चरित्र जानकर, रतिसेना उस पर अत्यंत अनुरागी बनी। राजा के आदेश से सुमित्र ने अपने आभूषण आदि तथा रतिसेना को भी ग्रहण कर लिया। इस घटना से राजा खुश होकर पूछा - मित्र! तूं ने मणि कैसे प्राप्त किया था ? मुझे छोडकर तुम क्यों चले गए थे? कहाँ रहे? क्या सुख-दुःख प्राप्त किया? यह सब सुनने के लिए मैं कुतूहल हूँ । सुमित्र ने भी अतः से इति तक सर्व वृत्तांत कह सुनाया। राजा भी चमत्कृत होकर कहने लगा व्यापार से लक्ष्मी प्राप्त की जा सकती है, पथ्य आहार से नीरोगता । वैसे ही पुण्य स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त किए जाते है । सुमित्र ने कहा - प्रभु! आपने उद्यम बिना ही राज्यलक्ष्मी प्राप्त की है। यह सब पुण्य का ही माहात्म्य है। दूसरी बात यह है कि - आप महापुर में नगर बसाएँ, जिससे स्वदेश का विस्तार हो सके। वीरांगद राजा ने भी महापुर में नगरी का निर्माण कराकर, अपनी आज्ञा का प्रवर्त्तनकर, महाशालपुर में रहने लगा। इस प्रकार भोग सुख रूपी समुद्र में मग्न बनकर, सुखपूर्वक राज्य का संचालन करने लगा।
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इस प्रकार नवीन कथा कहकर, कथाकार भट्ट ने रत्नशिख राजा से कहा - प्रभु ! कथा का परमार्थ यही है कि - पुण्यशाली कही पर भी जाकर व्यवसाय
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