Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 59
________________ दोनों उद्यान में गएँ। तब वीरांगदकुमार ने कहा - मित्र ! पुण्य की परीक्षा करने के लिए, हम दोनों को दूर देशांतर जाना चाहिए। विविध कौतुकों से युक्त अनेक नगरों के दर्शन होंगें, तथा सज्जन - दुर्जनों का भी विशेष ज्ञान होगा। सुमित्र ने कहा - मित्र! आपका कथन यथार्थ है। कुमार ने कहा- परंतु माता-पिता को छोडकर कैसे जा सकतें हैं? यदि गुप्तरीति से जाएँगें, तो उन्हें अधीरता होगी और पूछेंगें तो, वे जाने की अनुमति नही देंगें ! इस प्रकार उपाय का विचार करते हुए, वे दोनों उद्यान में टहलनें लगें। उसी समय वध्यभूमि की ओर ले जाए जाते किसी पुरुष ने शरण, शरण इस प्रकार कहते हुए कुमार के पैरों में गिरा । उस पुरुष के समीप में रहें दंडधारी सैनिकोंनें कहा - राजकुमार ! यह दुष्ट चोर है। सुदत्त श्रेष्ठी के घर से चोरीकर निकलते समय यह पकडा गया था। पश्चात् राजा के आदेश से, इसे शूलि पर चढाने के लिए, हम इसे वध्यभूमि में ले जा रहें हैं। तब कुमार ने सोचा- शरण में आएँ का समर्पण करना योग्य नही है और चोर का रक्षण करना भी अयोग्य है। फिर भी शरण में आएँ का त्याग करना हमारे जैसे शरण देनेवालों को घटता नही है। इस प्रकार विचारकर शरण आगत की रक्षा के लिए उत्सुक कुमार ने कहा तुम इसे ग्रहण नही कर सकते हो। पिता से कहना कि इसे छोड दे । कुमार के निश्चय को जानकर, उन्होंनें शीघ्र ही जाकर राजा से निवेदन किया। रोष में आकर, राजा ने उसे देश बहिष्कार का आदेश दिया। राजा का वचन सुनकर, कुमार खुश हुआ और अपने मित्र के साथ नगरी से निकल पडा। मार्ग में पुण्योदय सूचक प्रशस्त शकुन हुए । क्रम से बहुत मार्ग का उल्लंघनकर एक भयंकर अटवी में आएँ । कुमार खेदित होकर वटवृक्ष की छाया में सो गया। सुमित्र उसकी थकान दूर करने के लिए पैरों की मालिश करने लगा। वटवृक्ष का अधिष्ठायक भासुरप्रभ नामक यक्ष उन दोनों का रूप देखकर खुश हुआ। अवधिज्ञान से उनका वृत्तांत जान लिया। सुमित्र से प्रत्यक्ष होकर कहा वत्स! तुम दोनों मेरे उत्तम अतिथि हो। इसलिए मैं तुम दोनों की क्या आतिथ्य कर सकता हूँ? सुमित्र ने कहा- देव! दुर्लभ ऐसे आपके दर्शन प्राप्तकर, हमने सब कुछ पा लिया है। यक्ष ने कहा याचना सिवाय सज्जनों में सर्व गुण होतें हैं। सज्जन पुरुष दुःखियों का उद्धार करतें हैं और बदले में कुछ भी नही मांगतें हैं। फिर भी देवदर्शन अमोघ है। इसलिए तुम इन दोनों मणि को ग्रहण करो । तीन उपवास से इस नीलमणि की पूजा करने पर, यह राज्यप्रद होगा और यह दूसरा लालमणि ॐ ह्रों से जाप करने पर, मनोवांछित पूर्ण करता है। नीलमणि राजकुमार के लिए योग्य है और लालमणि तुम्हारें लिए उचित है। हाथों से संपुट बनाकर, सुमित्र ने विस्मित होते हुए उन दोनों मणि को ग्रहण किया । यक्ष को प्रणामकर 54 - -

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